________________
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
'हे मुनिश्रेष्ठ ! अभी लोग जिनेश्वर वचनों को समझने के इच्छुक हैं । और वे आपके अनुगामी भी बनजाएं, यह भी संभव है । इसीलिये आप तपस्या को स्थगित कर दें। आप हमारी बात मानें और भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देने के लिए उद्यम करें ।
६६
८५. तरणितापत पो प्रहतोनिशमुपचितात्मिकतैजसता
परा ।
व विना ॥
तदपि तेऽमृते प्रतनुस्तनूः, कमलिनी मलिनीव यद्यपि निरन्तर प्रखर सूर्य के ताप में आतापना लेने से आप का आत्मतेज अत्यन्त बढ़ चुका है फिर भी अन्न के बिना आपका यह शरीर वैसे ही सूख गया है, मुरझा गया है जैसे सूर्य के बिना कमलिनी मुरझा जाती है ।
८६. जनविबोधनमुग्रतपः पुनर्न युगपद् भवितुं ननु शक्यते ।
अत इहास्ति विनम्र निवेदनं, हृदयतोऽदयतोमरशालिनाम् ॥
'हे मुनिप्रवर ! जनता को प्रतिबोध देना एवं उग्र तप करना - ये दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते । इसीलिए तपरूपी कठोर शस्त्र से सज्जित आपको हमारा यह हृदयगत नम्र निवेदन है ।'
८७. भवति भाति यथा प्रभुता परा, न च परेषु तथा परिभाव्यते । तिमिरनाशकतास्ति यथा रवौ, तदपरेषु परेषु तथापि किम् ॥
'हे मुनि ! जन प्रतिबोधन की प्रभुता जैसी आप में है वैसी औरों में परिलक्षित नहीं होती । अन्धकार को नाश करने की शक्ति जंसी सूर्य में निहित है, वैसी शक्ति अन्य ग्रहों आदि में नहीं होती ।'
८८. जिनमतस्य यथार्थविभावनां
परमपावनपावनभावनाम् । कुरुतरां सुतरां नितरां वरां, प्रतिभयाऽतिभयाऽतिभया तव ॥
'हे मुनिश्रेष्ठ ! आप अपनी भयमुक्त एवं प्रदीप्त प्रतिभा से परम पवित्र और उत्तम भावनाओं से आकीर्ण जिनमत की निरन्तर यथार्थ प्रभावना करते रहें ।'
८९. विरचितुं तु तपो वयमीश्वराः, गमयितुं न परन्तु परान् क्षमाः । तहि मामरं प्रसमप्यता, शुभवता भवता क्रियतां च तत् ॥
'हे मुनिपुङ्गव ! तपस्या करने में तो हम भी समर्थ हैं, परन्तु जनता को समझाने के लिये समर्थ नहीं हैं, इसीलिये परम सौभाग्यशाली आप हमें तपस्या में नियोजित करें और स्वयं भव्य प्राणियों को समझाने का कष्ट करें।"