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________________ श्रीमिक्षु महाकाव्यम् सबसे पहली बात तो यह है कि मेरे वचन कोई सुनना नहीं चाहते । कदाचित् सुन भी लेते हैं तो यथार्थता से उसे ग्रहण करने के लिए तत्पर नहीं रहते तथा लोग सदा मेरी बात का दुरुपयोग ही करते हैं। ऐसी स्थिति में जनता के लिए इतना सिर- पचाना, श्रम करना, व्यर्थ है । अब मेरे लिए यही सुन्दर है कि मैं अपने प्रचार से विरत हो जाऊं । ५२ १५. कुमतिभिर्विकृता बहुराश्चये, ह्यविकृतान् परिमन्थयितुं पराः । अहमहो करवाणि किमेकको, जिनवरेन्द्र ! वरेन्द्रसमचत ! ॥ हे श्रेष्ठ इन्द्रो द्वारा पूजित जिनवरेन्द्र ! ये अज्ञानी लोग बहुत मनुष्यों को बिगाड ही रहे हैं, साथ ही साथ जो अच्छे हैं उनको भी बिगाड़ने के लिए तत्पर रहते हैं । अब मैं अकेला क्या करूं ? १६. स्वरिपुसत्ययुगानुगमानिव कलिरवेक्ष्य सुलक्ष्यपरान् किमु । अनभिनन्दयिता तदपष्ठुरान्', विजयिनो जयिनोऽजयिनोऽतनोत्' ॥ यह कलिकाल अपने शत्रु सत्ययुग के अनुयायियों को सुलक्ष्य की ओर बढ़ते देखकर मानो उनका अनादर कर रहा है और जो प्रतिकूल मार्ग पर चलने वाले हैं तथा जो न्याय मार्ग से पराजित हैं उनको जय-विजय दिलाने वाला है । १७. अहह वीरविभो ! विभुताधिप । शृणुतरां सुतरां सकलार्थविद् ! अरमरुन्तुदहार्दसमुत्थितां सुभगवन् ! भगवन् ! भगवन् ! कथाम् ॥ हे वीरविभो ! हे विभुता के स्वामिन् ! हे सर्वज्ञ ! हे ऐश्वर्य संपन्न भगवान् ! मेरे व्यथित हृदय से उठी हुई कथा को आप सुनें तो सही । १८. सुभगसिद्धपुरोर्थनृपाङ्ग-जस्त्रि जगतामधिपस्त्रिशलात्मजः । हृतसमग्र समृद्धिवैभवो विरतितो रतितो व्रतमावदे ॥ सौभाग्यशाली सिद्धार्थ राजा एवं त्रिशलादेवी के पुत्र, तीन लोक के स्वामी महावीर ने समस्त ऋद्धि एवं वैभव को छोड़कर वैराग्य के साथ आनन्द से दीक्षा ग्रहण की। १९. रविमिताब्दसहाधितयन्त्रयोदशदलेषु महोग्रतपोबलात् । मतमितं वरकेवलसञ्ज्ञकं, विकलहं कलहं कलहं सितम् ॥ १. अपष्ठुरम् - प्रतिकूल (अपसव्यमपष्ठुरम् अभि० ६।१०१ ) । २. अजयशीलानपि जयविजयिनोऽकरोत् । ३. कलः– संख्या, तां हन्तीति कलहं - अनन्तम् 1
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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