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प्रयोदशः सर्गः
५१ ___ मेरे ये प्रसन्नवदन वाले सहचारी संतगण भी मेरी पग-पग पर विफलता को देख, परिषहों से घबरा कर अन्तःकरण से अन्यमनस्क हो सकते हैं।
१०. यदपि नेजहिताय कृतः श्रमः, प्रमुखताभिरमुत्रमनीषया। __तदपि सद्व्यवहारविलङ्घनं, रचयतोऽचयतो'ऽचयतो' न शम् ॥
यद्यपि प्रमुख रूप से मोक्षबुद्धि एवं आत्महित के लिए हम यह श्रम कर रहे हैं, फिर भी सद्व्यवहार, चाहे पुष्ट हो या अपुष्ट, उसका उल्लंघन करने वालों को कभी सुख नहीं हो सकता। ११. न शृणुते मनुते चिनुते च नो, वचनसङ्कलनं कलनाकुलम् । __कमभिलक्ष्य विलक्षणमानवं, विरचयामि चयामि चयामि तत् ॥
___ मेरे न्याययुक्त वचन को आज की जनता न तो सुनती है, न मनन करती है और न उसका संग्रहण ही करती है तो मैं किस विलक्षण व्यक्ति को लक्ष्य कर बोलू और किसके समक्ष अपने वचन पुष्ट करूं तथा किन व्यक्तियों का चयन करूं।
१२. क्व च गतानि दिनानि समुत्सुकाः, सपदि येष विमोर्वचनामृतम् । श्रवणसारपुटे रसितुं जनाः, समुदिता मुदिताऽमुदिता मुनौ' ॥
वे दिन कहां गये, जब प्रसन्न एवं अप्रसन्न चित्तवाले भी मनुष्य उत्सुकता के साथ भगवान् के वचनामृत को अपने कानों से पीने के लिये मुनियों के पास एकत्रित होते थे। '
१३. नयनगोचरतां प्रणयामि तत्, सुदिवसानि भवन्ति कदेह च। जिनवचोऽवितयं शृणयुर्जना, असरलाः सरलाः सरलायितम् ॥
मैं उन सुदिनों को यहां कब देख पाऊंगा जिनमें जिनेश्वर देव की सत्य और सरल वाणी ऋजु या वक्र-सभी व्यक्ति सुन पाएंगे ?
१४. न च यथार्थतया ग्रहणोत्सुका, दुरुपयोगकराश्च सदा जनाः ।
तदिह फल्गु शिरस्पचनेन किं, विरमणं रमणं रमणं ततः॥
१. अंनुञ्छतः। २. एकतोऽपि न सुख पुष्टीभवति । ३. सामीप्ये सप्तमी। ४. सुन्दरम् ।