SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० 1 ५. कुमतिसन्ततिकुत्सितका मनासु चिरसम्भृत सञ्चितसंस्कृतेः द्रुतमपाकरणं सुकरं न सा, सुजनताजनता' जनता ' क्व च ॥ श्रीम महाकाव्यम् मिथ्या परम्परा की कुत्सित कामना से जो संस्कृति चिरकाल से भृत एवं सञ्चित है उसका शीघ्र ही निराकरण करना सहज नहीं होता क्योंकि वैसी सुजनता से परिपूर्ण तथा धर्मप्रवण जनता भी कहां है ? ६. जनजने जटिला जडता भृता, निगडितान्धपरम्परभक्तिता । निविडतो स्थितिपालकता गता, स समयोऽसमयो' समयोगिनाम् ॥ जन-जन के हृदय में जटिल जड़ता भरी पडी है और जनता अंधभक्ति की परम्परा में जकडी हुई है तथा स्थितिपालकता भी निविड होती जा रही है । अतः यह समय ऐसे कठोर योगियों के लिए उपयुक्त नहीं है । ७. स्थितिमिमां समवेक्ष्य मुनीश्वरः, समवलोचयते चतुराग्रणीः जिनमतप्रसृतेनिगमोर्थवान्, विनयतो नयतो नयतोऽधुना ॥ ऐसी स्थिति को देखकर चतुर शिरोमणि मुनि नायक ने सोचा कि इस स्थिति में विनय से अथवा न्याय-नीति से भी जिनमत का प्रचार-प्रसार सार्थक नहीं होगा । ८. न च चतुर्विधवं भवसम्भवः, सुलभ बोधिजना अपि दुर्लभाः । यदि च कोपि समेति तमेव संभ्रमयते मयते मयतेजसा ॥ 1 वर्तमान में जब सुलभबोधि मनुष्यों का होना भी दुर्लभ है तो भला चतुविध संघ का वैभव होना तो कहां संभव है ? और यदि कोई मेरे पास आ भी जाता है तो उसको ज्यों-त्यों भडकाने के लिये उसको वश में लाने के लिए एवं दैत्यतेज से भयभीत करने के लिए दूसरे लोग कोशिश करते रहते हैं । ९. सहचराः शमिनोपि कदाचन, प्रतिपदं विफलत्वमिदं मम । समधिगम्य विरम्य परीषहैः सुमनसो मनसोऽमनसो ययुः ॥ १. सज्जनजनसमूहस्य भवनम् । २. अजे -- परमेश्वरे नताः । ३. अनवसर । ४. कठिनयोगिनाम् । ५. दैत्यतेजसा ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy