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त्रयोदशः सर्गः
१. सकलमङ्गलनिर्मलकारणं, विमलसाध्यसमुज्ज्वलसाधनम् ।
हृदि निधाय विधाय सहायकं, जिनवरं नवरं नवरञ्जितम् ॥ २. तरणतारणतीव्रतरस्तरत्तरणिवत्ततसंसरणाऽतरात् । निगदिते जिनपैः सुकृते कृते, प्रवदते वदते वक्ते' पुनः ॥
(युग्मम्) तब वे महामुनि भिक्षु समस्त निर्मल मंगल के कारणभूत, विमल साध्य के समुज्ज्वल साधन, समस्त पुरुषों में श्रेष्ठतम और ऋषि महर्षियों की स्तुति से रञ्जित जिनेश्वर देव को हृदय में धारण कर आगे बढ़े। तैरने और तैराने में निपुण तथा विशाल भव-समुद्र से पार लगाने के लिए तैरती हुई नौका के समान जिनेश्वर देव द्वारा प्ररूपित धर्म को पूछने पर या बिना पूछे भी आचार्य भिक्षु प्रगट करने के लिए यत्न करने लगे। ३. गुरुविपक्षकुलक्षणलाञ्छिता, विदधते श्रुतिगोचरतां न वाग् । श्रवणतोप्यनुसंदधते न ते, विमतितोऽमतितोऽमतितोदिनः ॥
जो कुगुरु के पक्ष रूप कुलक्षणों से लाञ्छित हो गये थे वे मनुष्य आचार्य भिक्षु की वाणी सुनने के लिए तत्पर ही नहीं होते थे । यदि वे अज्ञान से प्रताडित मनुष्य कदाचित् वाणी सुन भी लेते तो अज्ञान तथा द्वेषवश उस वाणी पर चिन्तन नहीं करते थे।
४. भगवताङ्गवतां भवनाशकं, सुरमणिब्रुमदुर्लभदुर्लभम् ।
अभिहितं नियति सुभगां विना, विशददर्शनदर्शनदर्शनम् ॥ ___ भगवान् का तत्त्वदर्शन मनुष्यों के भव-दुःखों का नाश करने वाला है । उसको देखने-समझने के लिए जो नेत्र चाहिए उनकी प्राप्ति चिन्तामणि रत्न एवं कल्पवृक्ष से भी अत्यन्त दुर्लभ है । इसीलिए शुभ भाग्य के बिना उन दिव्य नेत्रों की प्राप्ति नहीं हो सकती। १. न विद्यते वरो यस्मात् इति नवरम् । २. स्तवार्थे नवशब्दः। ३. पृच्छकाय अपृच्छकाय वा वदते यतते । ४. देषतो अज्ञानतो वा। ५. विशददर्शनाय नेत्रम् ।