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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३७. त्वदुक्त्यङ्गाजातो यथार्थंकवक्ता, जिनेन्द्रोदिताध्वप्रकाशकपुजः । कुशीलान् कुरङ्गान् कुरङ्गान् विधातुं, सटाभारसम्मारसिंहीयनादी ॥
'इसीलिये आपके कथनानुसार मेरा पुत्र यथार्थ भाषी एवं वीतराग के मार्ग में एक प्रकाशपुञ्ज ही है और कुशील रूप मृगों को कुरंग-विवर्ण बनाने के लिपे मानो शिर पर जटा बिखेरता हुआ तथा सिंहनाद करता हुआ सिंह ही है।'
३८. अतो नो कुपात्रं सुपात्रं सुतो मे, कथं भो ! सशैथिल्यचारोपचारी। प्रपा युज्यतेऽतस्त्रपावक्तुमीश!, शिवायास्तु पन्था भवन्तो वजन्तु ॥
इसीलिए मेरा पुत्र कुपात्र नहीं है प्रत्युत सुपात्र ही है। आप द्वारा कहे हुए उपरोक्त शब्द शोभास्पद नहीं हैं । वह शिथिलाचारी कैसे तो सकता है ? आप यहां से पधारें। आपका पथ निर्विघ्न हो, मंगलकारी हो।
३९. तया तजितेनापि कार्य स्वकीयं, न मुक्तं वियुक्तं मनाग वेषभाजा। घृतेनाभिषिक्तेन वैश्वानरेण', परित्यज्यते कि निदाघस्वभावः ॥
माता दीपां द्वारा तिरस्कृत होकर भी आचार्य रघुनाथजी अपने द्वेषपोषण रूप कार्य से मुक्त नहीं हुए। उन्होंने अपने आपको विरोध से अलग नहीं किया। क्या घृत से सिंचित अग्नि अपने 'ताप' स्वभाव को छोड़ देती है ?
४०. समाक्रम्यमाणं समन्तात् समस्तः, समालोक्य साक्षात् पुराचार्यमित्यम् । मनस्वी मुनीन्द्रो महाध्यात्मतेजाः, प्रदीपाङ्गजातोऽपि जातोऽतिसज्जः॥
अपने पूर्व आचार्य (रघुनाथजी) को चारों ओर से आक्रमण करते हुए देखकर वे मनस्वी महान् अध्यात्म तेज से युक्त दीपाङ्गज आचार्य भिक्षु भी सज्जित हो गये।
४१.स्वमौलौ जिनाज्ञाशिरस्त्राणतायी, तनौ तत्त्वनिष्ठाच्छसन्नाहसाही।
क्षमाखड्गधारी मुनिभिक्षुराजोऽभवन् सन्मुखिनो जगन्नहारी॥
___ जगत् के द्वन्द्व को हरण करने वाले मुनि भिक्षु भी अपने शिर पर जिनाज्ञारूप शिरस्त्राण, अपने शरीर पर तत्त्व निष्ठारूप कवच तथा हाथ में क्षमा रूप खड्ग धारण कर परिस्थिति के सामने डटकर खडे हो गए। .
१. वैश्वानरः--अग्नि (कृशानुवैश्वानर -अभि० ४।१६४)