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द्वादशः सर्गः ।
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४२. विधृत्वात्मचित्ते महाशान्तिभावं, समोऽमित्रमित्रे यवा मित्रवः। . समाधी सुधासारसिन्धौ निमग्नः, समालोचयेत् साधुमार्ग पुनीतम् ॥
वे अपने चित्त में महान् शांति को धारण कर एवं सूर्य की तरह मित्रअमित्र पर समभाव रखते हुए, अपने पवित्र साधुत्व को स्मृति में रखते हुए, समाधि रूप सुधा समुद्र में निमग्न रहने लगे।
४३. नहि द्वेषमार्गाच्चिकीर्षुस्तयाऽहं, वृथाऽऽत्मीयकार्य कथं नाशयामि । समुत्पन्नकार्ये प्रतीयेत सम्यक्, क्षमाशूरता नान्यथा किञ्चताभिः॥
स्वामीजी ने सोचा, मैं द्वेषमार्ग को अपनाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करना नहीं चाहता। मुझे व्यर्थ ही आत्मगुणों का नाश नहीं करना चाहिये, क्योंकि कार्य उत्पन्न होने पर ही, अवसर आने पर ही, क्षमाशूरता जानी जाती है, अन्यथा नहीं।
४४. सदा सासहिः सिंहवृत्योपसर्गान, मुना वावहिर्भारमात्रं महीवत् । परं चाचलिनव सत्याध्वनोहं, मनाक् पापतिनों बुभूषः कदाचित् ॥
मैं निरन्तर सिंहवृत्ति से उपसर्गों को सहन करूंगा तथा गृहीत साधुभार को पृथ्वी की तरह वहन करूंगा। मैं सत्यमार्ग से कभी भी विचलित नहीं होऊंगा, कभी भी संयम मार्ग से च्युत नहीं होऊंगा।
४५. समुद्घाटय वक्षःस्थलं भिक्षुभिक्षुः, स्थितोऽभूज्जगत्यां समक्षे समेषाम् । ततः शासनं जेनमेनो विमुक्तं, समाशासितुं वीरवीरः प्रवृत्तः ॥
वे वीर श्रेष्ठ महामुनि अपना सीना तानकर इस संसार के सामने खड़े हो गये और जैन शासन को दोषविमुक्त करने की दिशा में जनता को शिक्षा देने में प्रवृत्त हो गए।
४६. मनोहत्य पञ्चाब्दपर्यन्तमन्नं, न नीतं न पीतं कणेहत्य नीरम् । तथाप्येष सद्वेषभाजामधीशो, विशश्राम नाहन्त्यसत्यप्रचारात् ॥
ऐसे महान विद्वेष के युग में स्वामीजी को पांच वर्षों तक न पर्याप्त अन्न ही मिला और न पर्याप्त पानी ही । फिर भी संत शिरोमणि अरिहंत प्रभु के मार्ग का निरंतर सही प्रचार करते रहे, कभी विश्राम नहीं लिया।
१. मित्र:- सूर्य (मित्रो ध्वान्ताराति...-अभि० २०१०)