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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
- विरोधियों ने स्वामीजी को मूल से उखाड़ने के लिये मानो संग्राम का मोर्चा ही लगा दिया हो और उनको क्लेश पहुंचाने के लिये वे अपने समूह के साथ उनके पीछे-पीछे वैसे ही चक्कर काटने लगे जैसे शुभ्र चंद्रमा के पीछे
२७. सदा जैननाम्ना विरोध दधदभिरधस्यादधःस्थैर्न सङ्ग निषेधः। परं प्रायसाम्यर्षिदीपाङ्गजस्तनिरोधो विरोधो विधेयः समस्तैः ॥
सदा जैन नाम से विरोध करने वाले तथा अधम से भी अधम लोगों की संगति में किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी परन्तु समता के साधक भीखनजी की संगति कोई न करे इस प्रकार चारों ओर से निरोध एवं विरोध का ही उपदेश चलता था।
२८. परस्तावती नैव हानिः कदापि, निर्यावती स्यात्ततो वारयामि । निजागीयरोगो यथा प्राणहारी, तथा नेतराणां शरीरामयो हि ॥
आचार्य रघुनाथजी कहते-'मैं भीखन की संगति के लिए इसीलिए मना कर रहा हूं कि जितनी हानि अपने घर वालों से होती है उतनी औरों से नहीं होती । जैसे अपने ही शरीर का रोग प्राणहारी होता है दूसरों के शरीर का रोग वैसा नहीं होता।'
२९. जनान्नोदयेयुर्जना यूयमेव, त्विदं सम्प्रदायान्तरे सूत्रधाराः। . क्रमौ क्वापि भिक्षोर्लगतां न किञ्चित्तथाश्रावकः सावधानश्च भाव्यम् ॥
आचार्य रघुनाथजी अपने मुख्य श्रावकों को प्रेरित करते हुए कहते'अहो ! श्रावको ! तुम ही इस सम्प्रदाय के सूत्रधार हो । तुम्हें इस बात की सावधानी रखनी है कि भीखन के पैर कहीं जमने न पाएं।' ।
३०. क्षमादानदाने मृषारूढिरूपं, तदादर्शमात्रा विलीना निलीना।
तदुद्देश्यपूत्तिनिरानन्दवृन्दा, यतो भिक्षुभिस्तादृशी दुष्टनीतिः॥ __उस समय में क्षमत-क्षमापना की जो सुन्दर विधि थी वह तो व्यर्थ रूढी का रूप धारण कर चुकी थी। उसका जो निर्मल आदर्श तथा उद्देश्य था वह तो कहीं विलीन हो गया था। उसकी पालना रूढीगत होती थी। उसमें कोई आनन्द नहीं था। इसीलिए भिक्षु के प्रति ऐसी दुर्नीति बरती जा रही थी।
३१. महानास्तिकानां यथेष्टं समायां, विरुद्धाद विरुद्धानि सम्भाषणानि ।
परं तस्य तस्यानुगानां च तव्यं, वचस्तैनं दीयेत वक्तुं प्रकुटपा ॥