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द्वादशः सर्गः
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२१. पव च स्थानयोगो मिलेत् क्वापि कोऽपि ततो दायकं पातयित्वा भ्रमान्तः । विधायाशु बाध्यं प्रणिष्काशयन्ति, पदावेव नो ब्रङ्गवेशात् सयत्नाः ॥
स्वामीजी को यदि कहीं शुद्ध स्थान मिल भी जाता तो वे अंधभक्त मकान मालिक को बहकाकर एवं उसको सामाजिक बंधनों से बाध्यकर ज्यों त्यों निकालने का प्रयत्न करते थे । वे स्थान से ही नहीं, ग्राम से या देश से भी निकालने के लिये प्रयत्नशील रहते थे ।
२२. यवस्पृश्यवद्वर्जनीयो विशेषादमुष्याभिषङ्गो लगेद्दोषरेखा । कियद्दक्षवक्षोऽसितागारगामी, विना कालिमानं कथं स्थापकः स्यात् ॥
देखो ! यह भीखन अस्पृश्य की तरह विशेष रूप से वर्जनीय है । इसकी संगति से दोष की रेखा अवश्य लग जाती है । क्या विचक्षण से भी विचक्षण मनुष्य काजल की कोठडी में रहकर कहीं काजल की रेखा लगाये बिना रह सकता है ?
२३. यदाख्यानदेशं व्रजेत् कोपि वक्षस्तदा सङ्घतस्तद्बहिष्कार एव । यदा कोपि दद्यादपूपं च दण्डस्तदेकादशोबारसामायिकानाम् ॥
समाज का यह प्रतिबंध था कि यदि कोई भव्य प्राणी भीखनजी का व्याख्यान सुनने जाएगा तो उसका संघ से बहिष्कार कर दिया जाएगा और यदि कोई भीखनजी को रोटी देगा तो उसे ग्यारह सामायिक का दंड ग्रहण करना पड़ेगा ।
२४. गृहेप्यागतस्यार्यस्य
भिक्षोर पूपप्रदानान्
मुनिस्थानकेषु ।
स्थिताया ननान्दुश्च सामायिकं त्राग्, गलेत् काचिदेवं वदन्ती श्रुता स्त्री । कोई स्त्री ऐसा भी कहती कि घर में भिक्षार्थ आए हुए मुनि भिक्षु को रोटी देने से, स्थानक में सामायिक की आराधना कर रही मेरी ननद की सामायिक गल जाती है, नष्ट हो जाती है ।
२५. यदा कोपि तस्यानुयायी प्रशंसी, यथार्थानुमोदी विनोदी तवर्षम् । गतोऽयं च वीतो विशीर्णोत्तमाङ्ग, इति स्तुत्यशब्वैस्तमुच्चारयन्ति ॥
यदि कोई स्वामीजी का अनुयायी उनकी प्रशंसा या यथार्थ अनुमोदना करता तो वे अन्धभक्त ऐसा कहते - 'यह तो गयाबीता है। इसका मस्तिष्क विकृत हो गया है ।' इन स्तुतिमय शब्दों से वे उसको पुकारते थे ।
२६. रणप्राङ्गणं मण्डयित्वा ह्यखण्डं, जना मंभु पृष्ठेषु पृष्ठेषु नित्यम् । भ्रमत्येव संक्मेशदानाम शुम्भच्छशाङ्कानु राहुप्रतिमैः स्ववर्गः ॥