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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १६. गुरोर्दृष्टिपश्यविवेकान्धभक्तः, समारब्धमारात् प्रतिप्राममुनम् । तदा तीवतीनं महारौद्ररूपं, महाताण्डवं तोमलं द्वेषवृत्तः ।
गुरुदृष्टि की आराधना करने वाले विवेकान्ध भक्तों ने आचार्य भिक्षु के प्रति गांव-गांव में द्वेष का अत्यन्त तीव्र, रौद्र और घोर ताण्डव नृत्य प्रारंभ कर दिया।
१७. तदा केऽपि सम्प्राप्तवारस्य लामं, समुन्नेतुमुत्का निजाककामाः। __निराउम्बरेना वृथाडम्बरेपाः, प्रसज्जा वृषान्धा महाविप्लवेत् ॥
उस समय धर्मान्ध, आडंबरप्रिय तथा वृथा आडंबर में रस लेने वाले कुछेक व्यक्ति अवसर का लाभ उठाने तथा अपने प्रयोजन-सिद्धि के लिए उस महान् विप्लव में भाग लेने के लिए सज्जित हो गए।
१८. समागत्य केचिन् महर्षेः समीपे, छलः कौतुर्कश्छिद्रग्निविहासः । पुरावणितानेकवाक्यप्रपञ्चविभिन्न विभिन्न जनास्तं लपन्ति ॥
आचार्य भिक्षु के पास कुछेक छिद्रान्वेषी व्यक्ति छल-छिद्र देखने के लिए, कुछेक कुतूहलवश और कुछेक उपहास करने के लिए आने लगे। वे पूर्वोक्त वाक्य प्रपंचों से भिन्न-भिन्न प्रकार से बोलने लगे।
१९. पुरोभागि'मुख्यो जिनेन्द्र गुरौ वा, महापातकं यस्य वक्त्रावलोकात् । जमालीरतायं च गोशालको वाऽवतीर्णोऽवसीयप्रतिबिम्बवम्भात् ॥
आचार्य रघुनाथजी लोगों को कहते-यह भीखन जिनेन्द्रदेव और गुरु में केवल दोष देखने वाला है । इसका मुंह देखना भी महान् पाप है। ऐसा प्रतीत होता है कि भीखन के रूप में मानो जमाली अथवा गोशालक ही पृथ्वी पर अवतरित हो गया हो।
२०. स्वतो दानदानं बहुदूरमस्तु, परर्दीयमानं निषेद्धं समुत्काः।
तृषाभिः क्षुधाभिः परिक्लान्तदेहं, समालोक्य तादृग् दयालुः प्रसन्नः॥..
- वे अन्धभक्त स्वामीजी को अपने हाथों से स्वयं दान देना तो दूर रहा, परन्तु जो दान देते थे उनको निषेध करने के लिये तत्पर रहते थे । ऐसी स्थिति में जब लोग स्वामीजी को भूख और प्यास से खेदखिन्न देखते थे तब वे तथाकथित दयालु पुरुष बहुत प्रसन्न होते थे।
१. पुरोभागी-केवल दोष देखने वाला (दोषकदृक् पुरोभागी-अभि०
३।४४)।