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________________ द्वादशः सर्गः ११. प्रभूणां न मानं मनाग योऽभिरक्षेत्, कथं मां गुरुं सोऽभिमन्येत मानी। ततो मां त्यजेत् तत्र का नाम चिन्ता, भवनिर्गुरदर्शनीयोपि नाऽयम् ॥ जिसने भगवान का तनिक भी मान नहीं रखा यह मानी मुझे गुरु के रूप में कैसे मान सकता है ? इसलिए यह मुझे छोड़ दे तो इसमें कौनसी चिंता है ? अतः यह निगुरा है और देखने योग्य भी नहीं है। १२. अबुढं गुरं योऽतिशैथिल्यचारं, स्वयं प्रोजाय पार्थक्यमङ्गीचकार।.. तथापीह निष्कासितोयं मयेति, निवप्रौढ'दर्शी च मिथ्याभियोगः ॥ स्वामीजी ने स्वयं गुरु को अबुद्ध तथा अति शिथिलाचारी समझ कर छोड़ा था, फिर भी आचार्य रघुनाथजी अपना बड़प्पन तथा दक्षता दिखाने के लिये मिथ्या अभियोगों द्वारा ऐसा कहने लगे- 'मैंने इसको गच्छ से निकाला है।' १३. निजाताखिलाधिपत्वीव वक्ति, मदाज्ञाबहिस्त्वाद् स भिक्षुन भिक्षुः । अतो नाभिवन्धः सतां नाभिनन्धस्तिरस्कारयोग्यो बहिष्कारयोग्यः । १४. न सेव्यः स्फुटामव्यजन्तोरिवेष, न मान्यो न गण्यो न वर्ण्यः कदापि । न दानं न मानं न हि स्थानमस्मै, प्रदेयं न चाहारपानीयमस्मै ॥ (युग्मम्) मानो साधुत्व का आधिपत्य अपने हाथों में ही ले लिया हो, इस प्रकार आचार्य रघु ने लोगो से कहा-'यह भिखन मेरी आज्ञा के बाहर होने से साधु नहीं है, वन्दनीय-पूजनीय भी नहीं है, परन्तु तिरस्कार एवं बहिष्कार के योग्य है।' _ 'इस भिक्षु को अभव्य की तरह मानकर इसकी न सेवा करनी चाहिए, न स्वीकार करना चाहिए, न मान देना चाहिए न स्थान और आहार-पानी देना चाहिए।' १५. स्त्रियः प्रायशोन्धानुकाराय सज्जा, भवेयुस्ततस्ता बहु हस्तयित्वा । अवश्यान्नरांस्ताभिराधाय वश्यान्, कृतः स्वामिनि वेषभावप्रसारः ॥ प्रायशः स्त्रियां अन्धभक्ति में बहने वाली होती हैं, अतः अनेक स्त्रियों को अपने पक्ष में कर एवं जो पुरुष उच्छंखल थे उनको अपने वश में कर आचार्य रघुनाथजी ने स्वामीजी के प्रति प्रचुर द्वेष फैलाया। १. प्रौढः-बडप्पन, दक्षता (प्रवृद्धमेधितं प्रौढं-अभि० ६१३१ तथा प्रौढस्तु प्रगल्भ:-अभि० ३७)।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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