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________________ ३८ श्रीमहाकाव्यम् ६. उपद्रोतुमाबद्धकक्षो बभूव यथा दाववन्हिः प्रफुल्लं निकुञ्जम् । जनान् मुग्धभावान् क्षिपे चक्रवाले, यथा लुब्धकः पाशमध्ये मृगादीन् ॥ जैसे विकसित निकुंज को दावानल नष्ट-भ्रष्ट कर देता है, वैसे ही आचार्य भिक्षु को संकटग्रस्त करने के लिए रघुनाथजी ने कमर कसली और सामान्य तथा भोले-भाले लोगों को अपने वाक्जाल में वैसे ही फंसाने लगे जैसे शिकारी अपने जालपाश में मृगों को फंसाता है । ७. गुरुद्रोहविद्रोहकारी विकारी, दयावाननाशी विनाशी क्रियाणां निकारी प्रचारी मृषामान्यतायाः । निवासी निकेते च नार्यावियुक्ते ॥ तब आचार्य रघुनाथजी लोगों को कहने लगे- 'यह भिक्षु गुरुद्रोही, विद्रोही, विकारी तथा तिरस्कृत है और विरुद्ध प्ररूपणा करने वाला है । यह दया दान का एवं क्रिया का विनाश करने वाला तथा स्त्री-संसक्त वासस्थान में रहने वाला है ।' ८. अयं निन्दको निन्दनीयो नितान्तं, महानिन्हवानां महानिन्हवोऽयम् । समग्रेषु कार्येषु पुण्यात्मकेषु, मुदा घोषयेत्तत्र पापं हि पापम् ॥ 'यह निंदक है, निंदनीय है तथा महानिह्नवों में भी महानिह्नव है । यह समस्त पुण्य कार्यों में स्पष्ट पाप की घोषणा करता हुआ हर्षित होता है ।' ९. तो मारणे सर्वमान्यं प्रमाणं, मुदा रक्षणे धर्म एवाङ्गभाजाम् । परन्त्वस्य रागादिभावैरमारे वने चापि पापानि सर्वाणि वा स्युः ॥ प्राणियों को मारने में पाप है तथा उनकी रक्षा करने में धर्म ही है, यह सर्वमान्य सिद्धांत है । परन्तु भिक्षु की मान्यता है कि राग आदि भावों से प्राणियों के अवध या रक्षण में सभी पाप -अठारह ही पापों का आसेवन होता है । १०. कियज्ज्ञानमस्मस्तथाप्येवभिक्षुर्यदाभिख्यया यः शिरो मुण्डितोऽभूत् । श्रिया वर्द्धमानं धिया वर्द्धमानं, तमेवाह विस्मारकं वं विमानम् ॥ हे लोगो ! इस भिखण में है ही कितना ज्ञान ! फिर भी इसने जिन के नाम पर शिर मुंडाया है, उन महान् अतिशय के धारक एवं सदा श्री और बुद्धि से वर्धमान भगवान वर्धमान महावीर को भी किसी प्रमाण के बिना ही चूका ( चूकनेवाला) बताया है । १. तमः - पाप (कल्मषं बृजिनं तमः - अभि० ६ । १७ ) । २. अमारे - अवधे ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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