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________________ द्वादशः सर्गः १. अथो वर्षमानागमोक्तं विशुद्धं, वृष विश्वविश्वकविश्वासपात्रम् । समुद्दीपितुं दीपतुल्योऽविकारी, सचेष्टो यथेष्टं मुनीशो विहारी ॥ . अब सम्पूर्ण विश्व के विश्वास पात्र भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित विशुद्ध धर्म को उद्दीप्त करने के लिए दीपतुल्य तथा अविकारी आचार्य भिक्षु प्रयत्नशील हुए और इच्छानुसार विहरण करने लगे। २. असत्यं त्वनिष्टं स्फुट सन्निवेष्ट, यतन्ते जगत्यां जनाः पक्षपातात् । - अहन्त्वेकसत्यं जिनोक्तं विवेक्तुं, यते किं न निर्मीकवृत्तिनिरीहः ॥ उन्होंने सोचा-'इस संसार में स्पष्ट झूठ को भी सच सिद्ध करने के लिए पक्षपात से ग्रस्त मनुष्य कितनी चेष्टाएं करता है, तो मैं निर्भीक एवं निस्पृहवृत्ति से जिनभगवान के सत्य वचनों का प्रसार करने के लिये क्यों न चेष्टा करूं?' ३. यथाभिरक्षाकृते प्राणपुजो, यदा प्रेत्ययात्री तदा कृत्यकृत्यः । मनो जैनपक्षकदक्षं विलक्षं, निरोद्धं न शेके न शङ्केच कष्टः॥ 'यदि यथार्थता की रक्षा के लिये मेरे प्राण भी चले जायें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊंगा । मैं वीतराग प्रभु के ही मत में संलग्न इस मन को रोक नहीं सकता। मैं कष्टों से भय भी नहीं खाता। ४. निज संयमीयं नवं जीवनीयं, निवोढुं मुदा मुख्यरूपेण नित्यम् । समुर्तुमाहन्त्यमात्मीयशक्त्या, समुत्थापयामास पादौ सुवृत्तौ ॥ ऐसा विचार कर अपने नवीन संयम जीवन का निर्वाह करते हुए आचार्य भिक्षु ने अपनी आत्मशक्ति से अरिहन्त प्रभु के मार्ग का समुद्धार करने के लिए अपने कदम उठाये । ५. इमां ख्यातिमाकर्ण्य वर्ण्यवक्त्रो, महाशोकसिन्धौ निमग्नो रघुश्च । मदीयो हि गच्छो न गच्छेद्विनाशं, मदीया प्रतिष्ठाऽपि नो निष्ठिता स्यात् । उनकी ख्याति को सुनकर आचार्य रघुनाथजी डावांडोल हो उठे एवं शोकसिंधु में निमग्न हो गये । वे ऐसा चिंतन करने लगे-कहीं मेरा गच्छ नष्ट न हो जाए तथा मेरी प्रतिष्ठा समाप्त न हो जाए।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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