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________________ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् तेरहपन्थी वह होता है जो ईर्या समिति आदि पांच समितियों, मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों तथा पांच महाव्रतों (५+३+५) का तीन करण और तीन योग से पालन करता है। १४७. त्रिलोककालान्तरवर्तमानः, स एव भिक्षुः श्रमणो मुमुक्षुः । स एव तेरादिमपूर्वपन्थीर्वन्द्योऽभिनन्द्यः स च भूर्भुवः स्वः ॥ तीनों ही लोक एवं तीनों ही काल में उपरोक्त नियमों को जो पालने वाले हैं वे ही सच्चे भिक्षु, श्रमण एवं मुमुक्षु हैं । वे ही तेरापन्थी हैं और वे ही तीन लोक द्वारा वन्दनीय और पूजनीय हैं । १४८. न वेषमात्रान्न नियोगिमात्रान्न नाममात्रान्न च चिन्हमात्रात् । तत् लक्षणींनतरो न साधुः, सेव्यो न सत्तरहपूर्वपन्थीः॥ न वेशमात्र से, न अधिकारमात्र से, न नाममात्र से और न चिह्नलिंगमात्र से कोई साधु होता है । जो उपरोक्त लक्षणों से रहित है, वह साधु नहीं होता, वह उपासनीय नहीं होता और वह तेरापन्थी मुनि भी नहीं होता। १४९. इत्थं वितेने स्वमतस्य नाम, गुणेन निष्पन्नमतीवसार्थम् ॥ व्यक्तेः समूहैर्मतसाम्यतो वा, स्यात् सम्प्रदायः क्रमतो गुरूणाम् ॥ उन्होंने अपने मत का गुणनिष्पन्न एवं सार्थक नामकरण किया। समान विचारों वाले व्यक्तियों का समूह ही गुरु-परम्परा से सम्प्रदाय कहलाता १५०. उपद्रवाणां बहुभिः प्रकारः, प्रावणनिवासे प्रथमेऽवतीर्णे । अन्येपि सन्तो मिलिता मिथस्ते, चर्चाऽवशिष्टा चलिता तदानीम् ॥ आचार्य भिक्षु का विविध प्रकार के उपद्रवों के साथ-साथ सफलता गर्भित यह प्रथम चातुर्मास पूर्ण होने के बाद, जो अन्यत्र चातुर्मास करने वाले संत थे वे सब एकत्रित हुए और जो अवशिष्ट तात्त्विक बोल थे, उनकी चर्चाएं चलीं। १५१. येषां मतं नो मिलितं च ते ते, बहिष्कृता भिक्षुमुनीश्वरेण । मतं किलकत्वमनेकतां च, कुर्यात् क्षणात् सादृगसादृशाभ्याम् ॥ जिन संतों के विचार नहीं मिले, महामुनि ने उनको समूह से विलग कर दिया। समान या असमान विचार ही एकता और अनेकता को संपादित करते हैं।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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