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ग्यारहवां सर्ग १४१. नैसर्गिकोद्गाररसात् परं किमेकं हि वाक्यं भुवनं व्यनक्ति ।
देशीयभाषारचितस्य तस्य, व्यनज्मि भावं प्रकृतार्थवाण्या ॥
हृदय से निकले हुये नैसर्गिक उद्गार रस से परे कोई उत्कृष्ट रस नहीं होता । एक ही नैसर्गिक वाक्य संसार को प्रकाशित कर देता है। उस कवि के नैसर्गिक वाक्य को मैं संस्कृत वाणी में प्रकाशित करता हूं।
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१४२. आत्मात्मकोलाहलमाकलेरनात्मात्मिकं तन्मतमस्तु किन्तु ।
शृण्वन्तु साक्षादिमके हि तेरापन्थीति तत्त्वं नगरस्य लोकाः॥
जो अपने-अपने मतं बांधते हैं, वे अपने लिये ही हैं किन्तु उनमें आत्म-शुद्धि नहीं हो सकती। इसलिए हे ! नागरिको ! यह तेरापन्थ ही तन्त
१४३. एतन् निमित्तं प्रकटं हि तेरापन्थीति नाम्नः प्रथितं पृथिव्याम् ।
ततश्च ये ये गुरुभिक्षुभिक्षुमतानुगास्तेरहपन्थिनस्ते ॥
इसी निमित्त से यह संसार में 'तेरापन्थ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जो आचार्य भिक्षु के अनुयायी हुए वे तेरापन्थी कहलाने लगे।
१४४. मेदस्विपाटे निवसंस्तदानी, संश्रुत्य भिक्षुर्ममुदे मनोन्तः ।
अहो प्रभो ! ह्येष तवैव पन्या, इत्यर्यवंस्तेरहपन्थिनाम ॥ ..
उस समय महामुनि भिक्षु मेवाड़ प्रदेश में थे। "तेरापन्थ" नाम सुनकर वे मन ही मन प्रमुदित हो उठे। वे तब पट्ट से नीचे उतर बद्धाञ्जलि होकर बोले-'हे प्रभो ! यह तुम्हारा ही पन्थ है।' यह तेरापंथ नाम अर्थवान् है।
१४५. अहं तु ते सत्पथि पुष्टपान्थो, यावन्न कुर्या शिवसाध्यसिद्धिम् । . .
श्रान्तो भविष्यामि न निर्णयो मे, साफल्यसौधाश्रयणाश्रयी स्तात् ॥
'प्रभो ! मैं तो तुम्हारे सत्पथ का दृढ़ पथिक हूं। मेरा लक्ष्य है मोक्षप्राप्ति । जब तक मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर लंगा, तब तक मैं विश्रान्त नहीं होऊंगा। मेरा यह निर्णय सफलता के सौध का आश्रयी बते अर्थात् पूर्ण सफल हो। १४६. इर्यादिपञ्चाखिलसत्समित्या, त्रिगुप्तियुक्त्योरुमहाव्रतानि ।
त्रिभिश्च योगः करणरवेद्यः, स एव वा तेरहपूर्वपन्थीः॥ १. उस कवि ने राजस्थानी भाषा में यह दोहा कहा
आप आपरो गिलो करे, आप आपरो पन्थ । सुणजो रे शहर रा लोकां, ओ तेरापन्थी तंत ॥ . ... .