________________
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'उन्होंने अहंकार को अनहंकार में बदल दिया इसलिए पुनः मुनि भिक्षु 'पुर विजय प्राप्त करने के लिए वह अहंकार उनके शत्रुओं का इच्छुक बन गया और अपनी सहायता के हेतु रात-दिन तीन लोकों की सेवा करने 'लगा।'
१२५. मवैरिणीयं त्विति मार्यमाणा, येनाश्रिता शम्बरनामदत्यम् ।
ततोप्यदो भीतिवशात् प्रणश्य, त्रैलोक्यलोके भ्रमतीव माया ॥
'यह माया मेरी वैरिणी है-ऐसा विचार कर माया का उन्मूलन करना चाहा । माया ने भागकर शांबर दैत्य का आश्रय लिया। किन्तु वहां पर भी भिक्षु के भय से निर्भीक नहीं बनी इसीलिए तो वहां से पलायन कर वह माया तीनों लोकों में भ्रमण कर रही है।'
१२६. सन्तोषसिन्धाविव कि निमग्नः, प्लुष्टोऽस्य शुक्लप्रणिधानवह्नौ।
करीव कि वृत्तमृगारिणाऽऽधि, लोभो म चेत् किं नयनरलक्ष्यः ।।
क्या उनका लोभ संतोषरूपी सिंधु में निमग्न हो गया ? क्या वह निर्मल ध्यानरूप अग्नि में भस्मसात् हो गया ? जैसे सिंह हाथी का भक्षण कर लेता है क्या वैसे ही उनके चारित्ररूप सिंह ने लोभ का भक्षण कर डाला ! ऐसा नहीं है तो वह लोभ आज उनमें दृष्टिगोचर क्यों नहीं होता?
१२७. चिच्छेद तृष्णां विरतेः कृपाण्या, यो भिक्षुभिक्षुमृगजालिकावत् ।
लेभेतिकष्टं हिरणरिवाऽस्यां, भवं वनं मर्त्य गणमद्भिः ॥
'जैसे मृग मृगजालिका में फंसकर कष्ट को प्राप्त होते हैं, वैसे ही संसारी प्राणी भवरूप वन में तृष्णा रूप मृगजालिका में फंसकर कष्ट को प्राप्त होते हैं । ऐसी तृष्णा रूप मृगजालिका को भिक्षु ने विरति रूप कृपाण से छेद डाला है।'
१२८. सदा शरण्यः परमेशितेव, निराश्रयाणां शरणच्युतां यः ।
धत्ते च मैन्यं न कदाप्यमैव्यं, पूषेव सन्न्यस्तसमस्तदोषः॥
महामुनि निराश्रित एवं शरण विकल व्यक्तियों के लिए परमेश्वर की भांति शरणदाता, सदा शत्रुभाव से शून्य होकर सबके साथ मंत्री रखने वाले तथा समस्त दोषों से शून्य सूर्य की भांति प्रकाशवान् हैं।
१२९. यो बोधबीजं ददतेऽङ्गभाजां, निधि पितेवोत्तमनन्दनानाम् ।
सिद्धः स्वसिद्धि सुनृणां विनीतान्तेवासिनां वा गुरुरुच्चतत्त्वम् ॥