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ग्यारहवां सर्ग
'जैसे पिता अपने श्रेष्ठ पुत्र को निधि देता है, जैसे सिद्ध पुरुष योग्य व्यक्ति को अपनी सिद्धि देता है, जैसे गुरु अपने विनीत अन्तेवासी शिष्य को विशिष्टबोध देता है, वैसे ही हे सचित्र महोदय ! ये हमारे गुरु भव्यप्राणियों को बोधिबीज देते हैं ।'
पञ्चाश्रवाम्भोधरवारिपङ्के । भवाध्वनि भ्रांतिमतां शिवस्याऽऽख्याता पथं यः स्वयमध्ववेदी ॥
१३०. मोहान्धकारस्मयशैलदुर्गे,
२९.
'वे स्वयं मोक्ष-मार्ग के वेत्ता हैं, इसीलिए मोहान्धकार से निविड एवं अहंकार रूप शैलों से दुर्गम तथा पांच आस्रवरूप रूप मेघों के पानी से पङ्किल संसार - मार्ग में भटकने वाले प्राणियों को मोक्ष का मार्ग बतलाने वाले हैं ।'
१३१. क्षमाधरस्याऽस्य पदं सहार्थ, क्व चाप्यलभ्यं प्रविलोक्य शेषः । क्षमाधरादन्यपदं प्रणेतुं, पार्श्वप्रभुं शीलति पादलग्नः ॥
'इन महामुनि को अलभ्य एवं अर्थान्वित क्षमाधर पद से विभूषित देखकर बह शेषनाग अपने 'क्षमाधर' नाम से भिन्न पद प्राप्त करने के लिए मानो पार्श्वप्रभु के चरणों की सेवा में रह रहा है । '
१३२. गम्भीरिमाणं दधता हि येन, जितोम्बुधिव्रडमवाप्य चित्ते । किमन्तरीपाधिनिवास वासात्, स्वयं प्रवासीव विभूय यातः ॥
'इन महामुनि ने अपनी गम्भीरता से स्वयम्भुरमण समुद्र को भी जीत लिया । इसलिए क्या वह मन ही मन लज्जित होता हुआ स्वयं समस्त द्वीपों और समुद्रों से परे जा प्रवासी की भांति बस गया ?
निजेन
येन ।
१३३. महामहिम्ना धृतिधूर्यताभिः, सुजातरूपेण
तिरस्कृतो देवगिरिस्त्रपाभिर्जडत्वमेत्याऽचपलः स्थितः किम् ॥ 'इन्होंने अपनी महाव् महिमा, धृति, भारवहन करने की क्षमता तथा सुन्दर रूप से मेरु को भी तिरस्कृत कर दिया । इसीलिए वह (मेरु) लज्जित - सा होता हुआ जड़ता को धारण कर, चपलता का त्याग कर, स्थिर और सीधा खड़ा है ।'
१३४. बाह्यं तमो हन्ति किलैकभागे, क्षेत्रं मितं द्योतयतेऽस्तमेति ।
कथं रवीन्दू स्वत उत्तमेन तेनैव तुल्यौ गुणिना भवेताम् ॥ 'परिमित क्षेत्र में प्रकाश करने वाले ये सूर्य और चन्द्रमा केवल बाह्य अंधकार का ही नाश करते हैं तथा स्वयं अस्त भी होते हैं । ये सूर्य और चन्द्रमा उन उत्तम मुनिराज के तुल्य कंसे हो सकते हैं ? "