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ग्यारहवां सर्ग
२७ 'अनादि काल में संसार मार्ग के भ्रमण से उत्पन्न होने वाला एवं समस्त मोहग्रस्त मनुष्यों को ज्यामोहित करने वाला संसर्ग दोष आचार्य भिक्षु से भयभीत होकर वैसे ही नष्ट हो गया जैसे गरुड़ से भयभीत होकर नागराज ।'
१२०. आप्तोक्तिशाणोल्लिखितांतराले, सङ्क्रान्तवैराग्यनिरुद्धदेशे ।
स्वान्तात्मवर्स प्रतिविम्बितो न, निरङ्गतो यत्र किमङ्गजेन ॥
'आगम के शाण पर जिसका मध्यभाग उज्ज्वल हो गया है तथा जिसमें संक्रांत वैराग्य से अवरुद्ध हो गए हैं जिसके समस्त प्रदेश, ऐसे आत्मरूप आदर्श में अनंग होने के कारण कामदेव अपना प्रतिबिम्ब उसमें डाल न सका।'
१२१. निष्कास्य बाह्ये निजचित्तसौधानिहन्यमानं स्वमवेश्य येन ।
न्यस्यत्रिवान्याङ्गिमनोमध्ये, विवेश रागो विवशाशयो हि॥
'आचार्य भिक्षु ने अपने चित्तरूप सौध से राग को बाहिर निकाल कर उसका उन्मूलन करना चाहा, तब अपना नाश देखकर राग विवश होता हुआ वहां से भागकर मानों जनेतर दर्शनों के अभिमत अणु रूप मानस में प्रवेश कर गया।'
१२२. अशोषितेनापगतिः स्वपुण्यरुष्णोष्मणे वोदकपङ्कपङ्क्तिः ।
अत्यकमि दाग भवपद्धतिश्च, व्योमावलीवाम्बुजबान्धवेन ॥
'आचार्य भिक्षु ने अपने तपोबल से कुगतियों के स्रोत को वैसे ही सुखा डाला जैसे सूर्य पानी एवं कर्दम को सुखा देता है और भव परम्परा को वे वैसे ही लांघ गये जैसे आकाश को सूर्य लांघ जाता है।'
१२३. वाचंयमस्य प्रशमाभिधानपञ्चाननोल्लासिमनोदरीषु ।
स्वनाशदर्शीव न कोपकुम्भी, प्रवेष्टुमीशोऽचतुरस्थितोऽतः ॥
उनके प्रशांतरूप सिंह से उल्लसित मानस-गुफा से अपना नाश देखकर मानो क्रोधरूप हाथी तो प्रवेश ही नहीं कर पाया । वह अज्ञानियों की शरण में चला गया।
१२४. गर्वोप्यगर्व गमितो हि तेन, जेतुं पुनस्तं तमरातिमिच्छः ।
साहाय्यकं किं प्रचिकीर्षुरेष, नक्तं दिवा सेवति सत्रिलोकीम् ॥ १. उष्णेन उष्मणा-वाष्पेन ।