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________________ २७४ श्रीमिनमहाकाबन् पहली बात आपने साधुओं से कही-'जाओ, नगर में ऐसा प्रयत्न करो कि अधिक से अधिक त्याग और वैराग्य की वृद्धि हो। दूसरी बात आपने कही-'शीघ्र सामने जाओ, साधु आ रहे हैं। तीसरी बात- साध्वियां आ रही हैं।' २९. धोत्रपथेन तदुक्तिमवेत्य, केचन चिन्तितवन्त उदात्तम् । ध्यानममुष्य हि सत्स विलग्नमित्यमतो वदितुं यततेऽयम् ॥ आपकी यह बात सुनकर कुछेक संतों ने सोचा कि संभवतः आपका ध्यान (मन) साधु-साध्वियों में रह गया है, इसीलिए ऐसा फरमा रहे हैं। (पर कोई आने वाला तो दीख ही नहीं रहा है।) ३०. किन्तु तथाकथनानुमित्या, सौष्ठवतः खलु तत्र मुहूर्तात् । विश्रुतसंस्तरणोदभववृत्तावुत्सु कितो चकिती वरमक्तो॥ ३१. वर्शकचित्रकरो तृषितो दो, पालिपुरान्महनीयविल । कल्पतयागमतां मुनिबेणीराम उदार इहान्यकुशालः॥ (युग्मम्) किन्तु अनुमानतः उस कथन के एक मुहूर्त बाद ही, संथारे की प्रसिद्ध बात को सुनकर उत्सुक व आश्चर्यान्वित होते हुए परम भक्त, दर्शकजनों को विस्मित करते हुए, पूजनीय पूज्यश्री के दर्शनों के इच्छक, आगमोक्त कल्प के अनुसार पाली नगर से मुनि श्री वेणीरामजी और कुशालजी- ये दो मुनि अत्यन्त तृषातुर अवस्था में वहां आ पहुंचे। ३२. तौ प्रणिपेततुरिज्यपदाम्ने, सान्द्रमुदा विधिना सुपरीत्य । सोऽपि तयोः शिरसि स्वकराब्जं, वत्सलतापरिपूर्णमधाच्च ।। उन दोनों मुनियों ने पूज्यश्री के चरण कमलों में विधियुक्त प्रदक्षिणा देकर सघन प्रसन्नता से वन्दना की और आपने भी उस समय पूर्ण वत्सलता के साथ अपना कर-कमल उनके मस्तक पर रखा । ३३. लोचनरोचनलोचनतो वा, स्वेङ्गिततः सुखसातमपृच्छत् । किन्तु न वक्तुमभूत् स समर्थो, मोदकरी सुगुरोस्तवियत्ता॥ किन्तु बोलने में असमर्थ होने के कारण आपने अपने नेत्रों की प्रियदृष्टि तथा इंगित से ही उनको सुखसाता पूछी । ऐसी अस्वस्थ अवस्था में आप जैसे सद्गुरु का इतना करना ही क्या आगंतुक शिष्यों के लिए परम हर्ष का विषय नहीं बन जाता ?
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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