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________________ अष्टादशः सर्गः २७३ ऐसे मुनिपति के दर्शन मात्र से ही दर्शनार्थी लोगों के हृदय आनन्दविभोर हो उठे, चेहरे उल्लास से भर गये और उनके शरीर रोमाञ्चित हो गए । २३. स्वामिगुणान् बहुधा ब्रुवते ते, धन्य इहास्ति भवांश्च परत्र । आर्हतसन्मतमस्तक मौलिर्धर्मधुरन्धर ऐन्द्रनतांहिः ॥ ari एकत्रित लोग fभक्षु के गुणों का बार-बार उल्लेख करने लगे'भंते ! आप इहलोक में भी धन्य हैं और परलोक में भी धन्य रहेंगे । आप पवित्र आर्हत मत के मुकुट हैं, धर्म-धुरा के समर्थ वाहक हैं तथा इन्द्र भी आपके चरणों में नत होते हैं ।' २४. येन समुत्सहनेन भवद्भिः, शुद्धपयो गृहितो जिनदृष्टः । प्रोज्ज्वलितः सुतरां स तथैवाऽऽ जीवनमात्मनिबद्धसुलक्ष्यात् ॥ 'आपने जिस अदम्य उत्साह के साथ जिनोक्त शुद्ध मार्ग को ग्रहण किया था, उसे उसी प्रकार आपने आत्मिक शुभ लक्ष्य के साथ जीवन पर्यन्त निभाया है, उसे उज्ज्वलित किया है । ' २५. एवमनेकगुणस्तवतोऽपि साम्यमनोभिरवास स पूज्यः । सम्प्रति साम्प्रतमन्यदिनस्य, नव्यचमत्कृतिमुद्विवृणोमि ॥ लोगों ने उनके अनेक गुणगान किए परन्तु पूज्य स्वामीजी साम्यभाव में स्थित रहे । अब मैं उस अन्तिम दिन की सुन्दर व चमत्कारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख कर रहा हूं । २६. यातवति प्रथमे प्रहरेऽन्हः, स्वल्पमपात् सलिलं श्रमणेशः । ध्यानमुपेत्य ततो बत तस्थौ, वात्मसमाधिलयेषु विलग्नः ॥ प्रथम प्रहर पूरा होने पर आचार्य भिक्षु ने थोड़ा-सा जल ग्रहण • किया। तत्पश्चात् ध्यानस्थ होकर आत्म-समाधि में लीन हो गये । २७. तद्दिवसाधितयाम इहेते, यच्चतुरश्चरमाणि वचांसि । भिक्षुमुनिः सहसा समवादीत्, तानि यथाक्रमतो निगदामि ॥ उस दिन लगभग डेढ प्रहर दिन बीता होगा कि आपने सहसा चार अन्तिम बातें फरमाई, जिनका मैं क्रमशः वर्णन कर रहा हूं । २८. प्राङ् नगरे परिवर्द्धयता तित्यागविरागरयं पुनराह । सन्मुखमाशु सरन्तुतरामाऽऽयान्ति च सन्त इहोत्तमसाध्व्यः ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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