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अष्टादशः सर्गः
२७५ ३४. तो स्वकरी विनयात् प्रतिबध्य, प्रोचतु इज्य ! भवच्छुमदृष्टेः।
सम्प्रति पूर्णकृतार्थतरौ स्वः, श्रेष्ठतमौ कृतपुण्यविपाको ॥ ____ तब उन दोनों ने विनय से अपने दोनों हाथ जोड़कर निवेदन किया'भंते ! आज श्रीचरणों के शुभ दर्शन होने से हम पूर्ण कृतार्थ, पूर्ण सौभागी और पूर्ण कृत-सुकृत हो गये हैं। ३५. अल्पति भक्तिरतो मुनिवेणीः, स्ताच्छरणं भवतां चतुरङ्गम् । स्वच्छरणं भवतात्सततं नो, जन्मनि जन्मनि वारमनेकम् ॥
भक्तिरस से आप्लावित होकर मुनि श्री वेणीरामजी ने कहा'आपको अरिहन्त-सिद्ध-साधु और केवलि-प्ररूपित धर्म की शरण हो और हमें जन्म-जन्मान्तरों में भी अनेक बार आपका अनवरत शरण प्राप्त होता रहे।
३६. यादशजनपथः प्रथमोऽयं, तादृश एव निर्शित इज्य !।
आदिजिनेन्द्रबहुज्ज्वलितोऽद्य, संसृतितारणपोतसमानः।।
प्रभो ! जैसा यह जैन धर्म प्रथम है, महान् है वैसा ही आपने निदर्शित किया है-आचरण द्वारा आलोकित किया है। यह धर्म संसारसागर से पार लगाने के लिए जहाज के समान है। आपने आदिनाथ जिनेन्द्र की भांति ही इसे प्रकाशित किया है। ३७. श्रावितवान् भगवद्भजनानि, तीर्थकृतां स्तवनानि शुभानि। तादृशसमये तादृशमिक्षोर्भाग्यमृते क्व सदन्तिमसेवा ।।
मुनि श्री वेणीराम जी ने भगवद् भजन और तीर्थंकरों की शुभ स्तुतियां गा-गा कर पूज्य श्री को सुनाई। उस समय के वैसे भिक्षु की वैसी सेवा (अन्तिमकालीन भिक्षु की अन्तिम सेवा) बिना भाग्य के कैसे किसी को सुलभ हो सकती थी? ३८. ताववहो सहसा त्रिकसाव्यस्तत्र समीपुरवेक्ष्य समस्ताः। चित्रमयुजंगदुम निनोक्तं, सङ्गतिमञ्चति सञ्चितसाराम् ॥
इतने में ही तीन साध्वियां वहां पर आ पहुंचीं। उन्हें देखते ही सब विस्मित से होते हुए कहने लगे-'अहो ! पूज्यपाद ने जो कुछ कहा था, वह सारपूर्ण एवं सङ्गत ही था। ३९. तादृशलक्षणतोऽवधिबोधसम्भवता तवृषो प्रतिभाति ।
निश्चयतः कवितुं न हि शक्यं, तस्वमिदं परमेश्वरगम्यम् ॥