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________________ षोडशः सर्गः २२३ उपरोक्त कहे गए पौषध-विधान के अनुसार पौषध करने वालों की आत्मसिद्धि होगी। ऐसे पौषध करने से संवर व निर्जरा होगी, ऐसा जिनेश्वर भगवान् ने कहा है । २०३. ऐशामुष्मिकलोकाय, प्सानपानार्थकीर्तये। पौषधो नैव कर्तव्यो, जिनेन्द्रः कथितस्तथा ॥ इहलोक, परलोक और खाने-पीने व यशकीत्ति के लिए पौषध नहीं करना चाहिए, ऐसा जिन भगवान् ने कहा है। २०४. अन्याशंसां विहायकनिर्जरासंवरेप्सया । निर्मायात् पौषधं तत्त्वात्, सैव पौषधपोषधः॥ अतः अन्य आशंसा को छोड़कर केवल संवर-निर्जरा के लिए किया गया पौषध ही तत्त्वतः पौषध है। २०५. पितृभ्रातृसमाः श्राद्धाः, ये जिनःप्रतिपादिताः। साम्प्रतं साम्प्रतं क्व ते, साधुचारित्रपोषकाः॥ भगवान् ने श्रावकों को साधुओं के पिता और भाई के समान बतलाया है। साधुओं के साधुत्व का पोषण करने वाले वैसे श्रावक वर्तमान में कहां हैं ? २०६. प्रेयांसि जिनवाक्यानि, तद्गा नो गुरवो वराः। अलमन्यरलं श्राद्धास्तादृगाः सन्ति क्वाऽधुना ॥ प्रेयस् जिनवचनों के पीछे चलने वाले गुरु ही हमारे श्रेष्ठ गुरु हैं, दूसरों से हमारा क्या प्रयोजन ? ऐसा सोचने वाले श्रावक अब कहां हैं ? २०७. तादृशाः सिंहनादेन, प्रस्ताः केचन तादृशाः। केचनासन्नमव्यास्ते, जाताः सन्मार्गगामिनः ॥ कुछेक वैसे शिथिल श्रावक स्वामीजी के सिंहनाद को सुनकर भयभीत हो उठे और कुछ आसन्न भव्य मनुष्य सन्मार्ग के अनुगामी बन गए। २०८. श्रमणोपासकाः सत्या, यदि स्युस्तत्त्ववेदिनः। ___ सन्तोऽपि सावधानाः स्युराचारकपरायणाः॥ यदि तत्त्व के जानकार सही श्रावक हों तो साधु भी सावधान और आचार-परायण रह सकते हैं।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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