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२०९. साधूनां कार्यमेतावन्, स्वयं पापात् सुरक्षितः । रक्षयेदपरान्नित्यं, श्रींभिक्षोर्वचनद्वयम् ।।
साधु का यही कार्य है कि वह पाप से बचे, अपनी रक्षा करे और दो ही वचन हैं ।
दूसरों को भी पाप से बचाए । आचार्य भिक्षु
२१०. पृष्टः केनापि ते स्वामिन्नियांस्ते कठिनः पथः । शास्त्रसत्योsपि पथ्योऽपि, कियद्वषं चलिष्यति ॥
किसी ने स्वामी को इस प्रकार पूछा कि आपका यह कठिन मार्ग शास्त्र सम्मत और पथ्य होने पर भी कितने वर्षों तक चलेगा ?
२११. प्रोत्ततार प्रभुर्यावत्, सन्तः सत्यश्च सद्धिया । श्रद्धाचारप्रसीमासु, दिष्ट्याऽऽग्रे दृढा दृढाः ||
मर्यादाया न मर्दकाः । स्थानकादीनि निर्मातुं चेष्टिष्यन्तेऽपि नो कथम् ॥
२१२. वस्त्रपात्रोपधीनां च
२१३. तावत् सम्यक् प्रकारेण, प्रवर्त्स्यति समुत्तरम् । प्रकृत्या पेशलं श्रुत्वा, पृच्छको मुमुदेतराम् ॥
श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
(त्रिभिर्विशेषकम् )
स्वामीजी ने उत्तर देते हुए कहा- 'जब तक साधु-साध्वी शुद्ध श्रद्धा, शुद्ध आचार का आगे से आगे दृढ़ता से पालन करते रहेंगे, वस्त्र, पात्र, उपधि की मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं करेंगे, स्थान आदि के निर्माण के प्रति सचेष्ट नहीं होंगे, स्थान के प्रति ममत्व नहीं रखेंगे तब तक यह धर्मसंघ चलेगा ।' यह मृदु उत्तर सुनकर प्रश्नकर्त्ता बहुत प्रसन्न हुआ ।
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२१४. स्थानकादीनि साधुभ्यः, प्रारप्स्यन्ते यदा कदा | वस्त्रपात्रादिमर्यादा, भञ्जयिष्यन्ति साधवः ॥
to कभी साधुओं के लिए स्थान आदि बनाये जायेंगे, तब साधु वस्त्र, पात्र आदि की मर्यादा का भंग कर देंगे ।
२१५. स्थास्यन्ति कल्पलोपेन, भविष्यन्ति श्लथास्तदा । यन्मर्यादाप्रमाणेन चालकाः शिथिला नहि ॥
जो कल्प का लोप कर विहरण करेंगे वे आचार में शिथिल हो जाएंगे । मर्यादा के प्रमाण से चलने वाले कभी शिथिल नहीं होते ।