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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
मुनि को उद्दिष्ट कर जो स्थान, अन्न-पान आदि बनाया जाता है, खरीदा जाता है, उसका बाद में दान देने से धर्म कैसे होगा ? सब विषयों में ऐसा ही जानना चाहिए।
१९७. भोक्ता पाता च धर्माय, बूयाद् भुजे पिबाम्यहम् ।
भोजकः पायकोप्येवं, श्रेयसे तद्विधायकः॥
खाने-पीने वाला कहता है कि मैं धर्म करने के लिए खाता-पीता हूं, ऐसे ही खिलाने पिलाने वाला भी कहता है कि मैं धर्म ध्यान कराने के लिए खिलाता पिलाता हूं।
१९८. भोक्तुः पातुश्च पापत्वात्, तत्कायं न दयात्मकम् ।
परिणामानुसारेण, · मावा ज्ञेयाः शुमाऽशुभाः॥
किन्तु जब खाने-पीने वाले को पाप लगता है तो वह खिलानापिलाना दयात्मक कैसे हो सकता है ? क्योंकि परिणाम के अनुसार ही शुभअशुभ भाव जाने जाते हैं।
१९९. पापोत्पादककार्याणि, भावान् पापमयांश्च ये।
प्रबुध्यन्ते शुभत्वेन, तद्धि मिथ्यात्वमज्ञता ॥
पापों को उत्पन्न करने वाले कार्य एवं पापमय भावों को शुभ समझना ही मिथ्यात्व और अज्ञानता है।
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पापा
२००. आत्महिंसा हि हिंसा स्याद्, भावेन निश्चयेन च ।
तदऽभावे ननु द्रव्यहिंसा नो पापकारिणी॥
आत्महिंसा ही भावहिंसा और निश्चययात्क हिंसा है। आत्महिंसा के बिना होने वाली हिंसा द्रव्यहिंसा है । वह पापोत्पादिनी नहीं है ।
२०१. कामभोगनिराशातः, स्युः सद्भावाश्च तैर्यदा। ___ मोक्षार्थ निर्मितो यो हि, स सम्यक् पौषधो मतः ।।
- कामभोगों की निराशा से ही शुभभाव होते हैं और उन शुभभावों से मोक्ष के लिए किया गया पौषध ही सही पोषध है ।
२०२. एवं पौषधकाराणामात्मकार्य प्रसेत्स्यति ।
कर्मरोधः कर्मत्रोटो, भावीति कथितो जिनः॥