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________________ षोडशः सर्गः २०७ ९३. सूत्रे यद्यन्निषिद्धं तत्, तवकल्प्यं प्रतीयताम् । अकल्प्यसेवका नूनं, घामका भवकानने ॥ सूत्र में जिन-जिन का निषेध है वे अकल्पनीय हैं । ऐसे अकल्प्य का सेवन करने वाले मुनि संसाररूपी अटवी में भ्रमण करते हैं । ९४. मुन्यर्थनिमिताहारवस्त्रपात्रालयादिकम् । सेवनीयं न सद्भिस्तदकल्प्यत्वान्मनागपि ॥ मुनियों के लिए बनाया गया आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि का आंशिक रूप में भी उपयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे सब अकल्प्य हैं। , ९५. तत्सेवी स्यादनाचारी, भ्रष्टो नरकगस्तथा । दशवकालिके लोक्यमुत्तराध्ययनेऽपि च ।। ऐसे अकल्प्य का सेवन करने वाले मुनि अनाचारी हैं, पथच्युत हैं और नरकगामी हैं । यह विषय दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन में प्रतिपादित ९६. सदर्थक्रीतमोज्यादि, नानुशील्यं प्रमोर्वचः। क्रीतग्राही महादोषी, स मौनात्पतितो मुनिः ॥ मुनियों के लिए खरीदा हुआ भोजन आदि का भी सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्रीतग्राही मुनि महादोषी एवं मुनिभाव से विकल है, ऐसा प्रभु ने कहा है। ९७. एकोनविंशकोद्देशे, निशीथे परिलोक्यताम् । नग्नो व्रतविहीनत्वात्, प्रभुणा सोऽभिधीयते ॥ क्रीतदोषी मुनियों को व्रतविहीन होने के कारण भगवान् ने निशीथ के उन्नीसवें अध्ययन में 'नग्न' कहा है । ९८. एतदिष्ट निष्टं वा, वस्तुमात्रं निरुप्य च। मूल्येन ग्राहयेत्सन् स, गृहिणां कार्यकारकः ॥ ___ यह वस्तु अच्छी है या बुरी, ऐसे वस्तुभाव का निरूपण कर उसे मूल्य द्वारा गृहस्थ से खरीद करवाते हैं, वे गृहस्थ से कार्य कराने वाले हैं । ९९. क्रयविक्रयकोंः स, चेष्टको महामन्तुकः । उत्तराध्ययने पञ्चत्रिशेनाध्ययनेन च ॥ क्रय-विक्रय करने वाले को प्रेरणा देने वाले मुनि महा अपराधी हैं। यह विषय उत्तराध्ययन के पैंतीसवें अध्ययन में विवेचित है।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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