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________________ २०६ श्रीभिनुमहाकाव्यम् . क्षेत्र की रक्षा करने वाली बाड़ खेत से भिन्न नहीं होती, पर क्षेत्र के अनुरूप ही होती है। वैसे ही उत्तर नियम मूल नियमों के अनुरूप होते हैं । २७. करुणाकन्दलाकारो, व्याजहार पुनर्गुरुः। दुर्लमा साधुता लोके, दुर्लभाऽतीव पालना । करुणा के मूर्तरूप स्वामीजी ने यह पुनः कहा-लोक में साधुता दुर्लभ है तो उसकी पालना और भी दुर्लभ है। १८. आत्तमग्नवतो यः स, नरकद्वारि संस्थितः । समुच्चयेन निर्दिष्टं, कर्षणीयं न तन्निजे ॥ जो व्रतों का भंग करने वाले हैं, वे नरक द्वार पर खड़े हैं । मेरा यह कथन सामुदायिक है, व्यक्तिगत रूप से इसे कोई अपने पर न खींच ले । ८९. नेयं निन्दा यथार्थवादऽद्वेषाद् हितदृष्टितः । कटुसत्यं तु तत्पूर्व, सज्जनानां रसायनम् ॥ मेरे इस कथन को निन्दा रूप में न समझे, क्योंकि यह यथार्थ है, बिना किसी द्वेष से केवल हितदृष्टि से कहा गया है। सज्जनों का ऐसा कथन कटु सत्य होते हुए भी रसायन के तुल्य है । ९०.ये ये दृष्टा यथा दोषा, विविच्यन्ते तथा तथा । सूत्रसाक्ष्या प्रतीयन्तां, साधूनां लक्षणान्यपि । जिन-जिन दोषों को मैंने देखा है, उन-उन दोषों का सूत्रसाक्षी से विवेचन करता हूं। अतः वे विश्वसनीय हैं । इसी प्रकार साधुओं के लक्षण भीजानने योग्य हैं। ९१. अकल्प्यं कल्पते नव, मुनिभ्यो भोजनादिकम् । दशवकालिके षष्ठाऽध्ययने परिलोक्यताम् ।। ___ मुनियों को अकल्पनीय भोजन आदि नहीं कल्पता । यह विषय दशवकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में द्रष्टव्य है । ९२. अकल्प्यवस्तुसंप्राहिश्रमणे महती क्षतिः। प्रागाचाराङ्गराद्धांतश्चौरं वदति तं मुनिम् ॥ अकल्प्य वस्तु को ग्रहण करने वाले साधु की महान् हानि होती है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ऐसे साधु को 'चोर' कहा गया है।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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