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श्रीभिनुमहाकाव्यम्
. क्षेत्र की रक्षा करने वाली बाड़ खेत से भिन्न नहीं होती, पर क्षेत्र के अनुरूप ही होती है। वैसे ही उत्तर नियम मूल नियमों के अनुरूप होते हैं ।
२७. करुणाकन्दलाकारो, व्याजहार पुनर्गुरुः। दुर्लमा साधुता लोके, दुर्लभाऽतीव पालना ।
करुणा के मूर्तरूप स्वामीजी ने यह पुनः कहा-लोक में साधुता दुर्लभ है तो उसकी पालना और भी दुर्लभ है।
१८. आत्तमग्नवतो यः स, नरकद्वारि संस्थितः । समुच्चयेन निर्दिष्टं, कर्षणीयं न तन्निजे ॥
जो व्रतों का भंग करने वाले हैं, वे नरक द्वार पर खड़े हैं । मेरा यह कथन सामुदायिक है, व्यक्तिगत रूप से इसे कोई अपने पर न खींच ले ।
८९. नेयं निन्दा यथार्थवादऽद्वेषाद् हितदृष्टितः । कटुसत्यं तु तत्पूर्व, सज्जनानां रसायनम् ॥
मेरे इस कथन को निन्दा रूप में न समझे, क्योंकि यह यथार्थ है, बिना किसी द्वेष से केवल हितदृष्टि से कहा गया है। सज्जनों का ऐसा कथन कटु सत्य होते हुए भी रसायन के तुल्य है ।
९०.ये ये दृष्टा यथा दोषा, विविच्यन्ते तथा तथा । सूत्रसाक्ष्या प्रतीयन्तां, साधूनां लक्षणान्यपि ।
जिन-जिन दोषों को मैंने देखा है, उन-उन दोषों का सूत्रसाक्षी से विवेचन करता हूं। अतः वे विश्वसनीय हैं । इसी प्रकार साधुओं के लक्षण भीजानने योग्य हैं।
९१. अकल्प्यं कल्पते नव, मुनिभ्यो भोजनादिकम् ।
दशवकालिके षष्ठाऽध्ययने परिलोक्यताम् ।।
___ मुनियों को अकल्पनीय भोजन आदि नहीं कल्पता । यह विषय दशवकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में द्रष्टव्य है ।
९२. अकल्प्यवस्तुसंप्राहिश्रमणे महती क्षतिः। प्रागाचाराङ्गराद्धांतश्चौरं वदति तं मुनिम् ॥
अकल्प्य वस्तु को ग्रहण करने वाले साधु की महान् हानि होती है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ऐसे साधु को 'चोर' कहा गया है।