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________________ २०८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १००. एकस्माच्च गुहान्नित्यं, मोक्तुं पातुं जलादने । गृहितुं कल्पते नैव, नित्यपिण्डाभिवर्जनात् ॥ भगवान् ने नित्यपिण्ड का निषेध किया है, इसीलिए बिना कारण खाने-पीने के लिए एक ही घर से प्रतिदिन भोजन, पानी नहीं ग्रहण करना चाहिए। १०१. प्रत्यक्ष नित्यपिण्डादी, हिंसानुमोदको ध्रुवम् । दशवकालिके षष्ठाऽध्ययने प्रतिपादितम् ॥ जो नित्यपिण्ड सेवी है, वह प्रत्यक्ष हिंसा का अनुमोदक है। यह विषय दशवकालिक के छठे अध्ययन में प्रतिपादित है । १०२. तत्तृतीयेप्यनाचारी, तथाशी पायकः पुनः । तस्मै दशाश्रुतस्कन्धे, दोषोऽपि सबलो मतः ।। नित्यपिण्ड भोगने वाले को दशवकालिक के तीसरे अध्ययन में अनाचारी कहा है और दशाश्रुतस्कन्ध में नित्य पिण्ड को सबल दोष भी माना १०३. षणिकायेषु जीवेषु, टेकस्यारम्भवर्तकः । षटकायारम्भकस्तद्वत्, पञ्चमहाव्रतक्षयी ॥ छह जीव निकायों में एक जीव निकाय का आरम्भ होता हो, वहां उत्कर्षतः छहों जीव निकायों की हिंसा हो जाती है। वैसे ही एक महाव्रत के टूटने से सभी महाव्रत टूट जाते हैं। १०४. एतादृगगुरुदोषाणां, सेविनं वेषवाहिनम् । कस्तं परीक्षकः पक्वो, मुमुखं मन्यते मुनिम् ॥ ऐसे गुरुदोषों का सेवन करने वाले वेषधारी मुनियों को परिपक्व परीक्षक श्रावक मोक्षार्थी मुनि कैसे मान सकता है ? १०५. गृहस्वामिनमुज्झित्वा, दम्भादपरशासनात् । शय्यातरस्य ये पिण्डं, गृह्णन्ति ते न साधवः॥ गृहस्वामी को छोड़कर दम्भ से दूसरों की आज्ञा लेकर जो शय्यातरपिण्ड ग्रहण करते हैं, वे साधु नहीं हैं । १०६. तदर्थ गहनो दण्डो, निशीथे निहितो जिनः । दशवकालिके सूत्रे, ह्यनाचारोऽपि सूत्रितः ।।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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