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श्रीमिक्षमहाकाव्यम् साधु अपने श्रावकों को जैनेतर सम्प्रदाय के मुनियों के पास आने-जाने से नहीं रोकते और न अपने जैसे आचार-शिथिल मुनियों के पास जाने पर खतरे का अनुभव करते हैं। पर वे शुद्ध आचार-विचार का अनुपालन करने वाले मुनियों के पास जाने वालों को बलपूर्वक रोकते हैं। उन्हें यह भय सताता है कि वहां जाने पर वे श्रावक हमारी पोलपट्टी को जान लेंगे। १८०. स्पर्धन्ते मुनिवेषिणः सुमुनिभिः किञ्चानुकुर्वन्त्यहो !
तिष्ठेयुविपणो विशुद्धयतिनस्तेप्युत्तरेयुस्तथा। व्याख्यान्ति श्रमणाः क्षमास्वपि यथा तेप्येवमाख्यायकाः, किन्त्वाऽऽकल्पनृतां विनश्यति कृतं पञ्चाङ्गसंग्राहिवत् ॥
१८१. दृष्टान्तोत्र नियोजितो गुरुवरोधो न चैकद्विजे,
सोऽभ्यर्णापणि तुल्यमेव सहसा व्यापारमारब्धवान् । यद् गृह्णाति वणिक् तदेव स ततः श्रेष्ठी समालोचय,
भूदेवोऽनुकरोति किन्तु सुमतिविद्येत वास्मिन्नहि ॥ १८२. आचष्टे प्रतिवेश्मवान् निजसुतं विप्रो यथाकर्णयेत्,
पञ्चाङ्गानि मिलेयुरन्यविषयात् क्रयाणि तावन्त्यरम् । तभावोऽतिमहर्घ्य आशुभविता द्वे द्वे स्त एककतः, श्रुत्वेवं विषयान्तरान् महिसुरोऽऋषीत् प्रणास्यास्पदम् ॥ .
(त्रिभिविशेषकम्) कुछेक आचारशिथिल मुनि आचारवान् मुनियों से स्पर्धा करते,उनका अनुकरण करते । आचारवान् मुनि रात्री को व्याख्यान देते तो अमुक सम्प्रदाय के साधु भी रात्रि को व्याख्यान देते । आचारवान् मुनि बाजार में ठहरते तो देखादेखी वे भी बाजार में ठहरते। इस प्रकार देखादेखी काम करते हैं, पर शुद्ध मान्यता और आचार के बिना काम सिद्ध नहीं होता। उनका कार्य पंचांगों का संग्रह करने वाले विप्र की भांति नष्ट हो जाता है। दृष्टान्त को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी बोले-एक ब्राह्मण था। वह स्वयं समझदार नहीं था। वह पड़ोसी की देखादेखी व्यापार करता था। पड़ोसी जो वस्तु खरीदता, उसे वह भी खरीद लेता। तब सेठ ने सोचा-यह विप्र मेरी देखादेखी कर रहा है या इसमें स्वयं की समझ भी है, यह ज्ञात करने के लिए उसने अपने बेटे से उस विप्र को सुनाते हुए कहा-अभी पंचांगों के मूल्यों में बहुत तेजी आने वाली है । इसलिए परदेश में जितने पंचांग मिलें उन्हें खरीद लेना है। शीघ्र ही मूल्य में वृद्धि हो जाएगी। दुगुना लाभ होगा। विप्र ने यह बात