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________________ पञ्चदशः सर्गः १३३ ७२. कि द्रव्यादहिमोक्षणे बहवधो वाच्यं कथं मोचितो, गत्वाऽरं स बिलेषु चोन्दुरघसेस्तत्प्राप्त्यभावाच्च किम् । प्रोड्डीनो बलिमुक तयापि गुलिकाक्षेपी न किं हिंसकस्तद्वन् मूषकसङ्गतिर्न हि विधेर्मोची तु तद्दोषभाक् ॥ किसी व्यक्ति ने पूछा-धन देकर किसी ने सर्प को मुक्त कराया। उसमें क्या होगा ? भिक्षु ने कहा-'बहुत हिंसा ।' 'कैसे ?' सर्प मुक्त होकर सीधा बिल में घुसेगा और वहां स्थित चूहे को खाएगा, वह हिंसा है । फिर प्रश्न हुआ-यदि बिल में चूहा न हो तो क्या परिणाम होगा ? स्वामीजी ने एक दृष्टांत दिया-किसी ने कौए पर गोली चलाई। कौआ उड़ गया, मरा नहीं । परन्तु क्या गोली चलाने वाला हिंसा का दोषी नहीं होगा ? इसी प्रकार बिल में चूहा न मिला, यह चूहे के भाग्य की बात है। किन्तु सर्प को मुक्त कराने वाला तो हिंसा का भागी ही है।' ७३. श्राद्धानां वसुवद् व्रतं त्वविरती रत्नामरीवत्पृथक्, • तेषामव्रतपोषणेन सुकृतं लिप्सुः स तत्त्वान्धिलः। एकारामतया विमूढमनसा धत्तूरसंसेचनात्, साक्षादात्रफलेच्छुकस्त्रिभुवने व्यर्थप्रयासाकुलः। श्रावक के व्रत रत्नों की उपमा से उपमित हैं तथा अव्रत रयणादेवी (रत्नादेवी) की उपमा से । दोनों पृथक्-पृथक् हैं। श्रावक के जीवन मे व्रतअव्रत दोनों होने के कारण वह व्रताव्रती कहलाता है । व्रत का पोषण एकांततः धर्म है एवं अव्रत का पोषण उससे विपरीत । पर जो व्यक्ति श्रावक के अवत का पोषण कर धर्म से लाभान्वित होना चाहता है वह तत्त्वज्ञान से शून्य है एवं लोक में व्यर्थ परिश्रम का भार ढोने वाले उस व्यक्ति के समान हैं, जो कि एक ही बगीचे में लगे आम और धतूरे के पेड़ों से विमुग्ध होकर आम के बदले धतूरे के पेड़ को सींचकर उससे आम्रफल पाने की आशा करता है। ७४. कश्चिच्चापणिकां समर्प्य तनयं ग्रामं गतोऽथाङ्गज स्तम्बाखूचुतमिश्रकः समभवत् प्रौढिप्रवर्शोत्सुकः । मोक्षाऽमोक्षपथद्वयं समतुलं निर्मात्य विज्ञस्तया, जिह्वाऽक्योषधयद्विलोमकतया संयोजको वाऽबुधः ॥ १. भिदृ० २७२।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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