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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् भिक्षु ने कहा-'मुनि जिसका अनुमोदन भी नहीं कर सकता, वह उस कार्य को कैसे करेगा ?'
७१. कि मेऽभूवजरमणान् मुनिभिरगुर्र्यो यदुवीकृते,
कोप्युत्तारयते ऋणं तदपरः कुर्याच्च तातो हि कम्। उन्ध्याच्चेदणकारकं तदिव यन्निरवद्यकारण्यतो, निघ्नन् सम्प्रतिषिध्यते समयतो यद्रक्षणे रागता ॥
किसी ने पूछा-भीखणजी ! किसी मनुष्य ने मरते हुए बकरे को बचाया, उसमें क्या हुआ? तब स्वामीजी बोले-ज्ञान से समझा-बुझाकर हिंसक को हिंसा से बचाने में धर्म होता है। स्वामीजी ने दो अंगुलियों को ऊपर कर कहा-कल्पना करो, एक अंगुली राजपूत है और दूसरी अंगुली बकरा । राजपूत मारने वाला है और बकरा मरने याला है। इन दोनों में कौन डूबता है ? मरने वाला डूबता है या मारने वाला ? नरक-निगोद में कौन जाएगा?
वह बोला-मारने वाला डूबेगा।
स्वामीजी बोले-'साधु डूबने वाले को तारते हैं। राजपूत को समझाते हैं-बकरे को मारने से तुम्हें संसार समुद्र में गोता लगाना पड़ेगा। इस प्रकार उसे ज्ञान से समझा-बुझाकर हिंसा से बचाना मोक्ष का मार्ग है। परन्तु साधु बकरे के जीने की इच्छा नहीं करता।'
जैसे एक साहूकार के दो लड़के हैं। एक लड़का ऋण लेता है और दूसरा उस ऋण को चुकाता है। पिता किसे रोकेगा । वह ऋण लेने वाले को रोकेगा । ऋण उतारने वाले को नहीं रोकेगा। इसी प्रकार साधु पिता के समान हैं। राजपूत और बकरा- ये दोनों पुत्र के समान हैं। इन दोनों में कर्मरूपी ऋण को कौन सिर पर चढ़ाता है और कर्मरूपी ऋण को कोन चुकाता है ? राजपूत तो कर्मरूपी ऋण सिर पर चढ़ाता है और बकरा अपने किए हुए कर्मों को भोग अपना ऋण चुकाता है। साधु राजपूत को कहते हैं तुम कर्मरूपी ऋण को सिर पर मत चढ़ाओ। कर्म का बन्ध करने पर तुम्हें संसार समुद्र में बहुत गोता लगाना पड़ेगा। इस प्रकार राजपूत को समझाबुझाकर उसे हिंसा से बचाते हैं । जो निरवद्य अनुकंपा से प्रेरित होकर जीवों की हिंसा से उपरत होता है, वह धर्म है । जो जीवों की रक्षा करता है वह रागभाव है।
१. भिदृ० १२८ ।