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________________ पसर्गः १२५ तब वह ब्राह्मणी बोली-भाई ! काचरी के स्वाद का तो तब पता चलता जब मैं उसे चाकू से छीलती।' वे बोले-'छुरी नहीं थी तो काचरी को किससे छीला?' वह बोली-'दांतों से छील-छील कर दाल में डाली है।' तब व्यापारी बोले-'अरे पापिनी! तुम हमको भ्रष्ट कर दिया।' वे थाली को उठा कर पटकने लगे। तब वह बोली-'रे भाई ! थाली को तोड़ मत देना । मैं उसे डोम से मांग कर लाई हूं।' व्यापारी बोले-'तुम किस जाति की हो?' वह बोली-'मैं बनी बनाई. ब्राह्मणी हूं। मैं जाति से तो डेढ हं। 'मेर' लोगों ने मुझे ब्राह्मणी बनाया ।' उसने आदि से अन्त तक पूरी बात सुनाई। भीखणजी स्वामी बोले- इसी प्रकार ये धोवन पानी और गरम पानी पीते अवश्य हैं पर स्वयं सद्गुणों से भ्रष्ट हैं तथा भव्य मनुष्यों को भी पथच्युत कर रहे हैं । ये बनी बनाई ब्राह्मणी के साथी हैं।' ६२. भीमावनि सर्वपाप्यनुगुणान् पूजा प्रतिष्ठा मता, तेऽन्ये निगुणपूजका बिनमतात् पन्यान एवाखिलाः। नेपथ्यं तसद्गुन लभते-साधुत्वसभास्पवं, प्राप्ता किन विसम्बना परहता सा कृत्रिमा ब्राह्मणी ॥ जैन परम्परा में गुणों के पीछे पूजा और प्रतिष्ठा मानी गई है । जैन परम्परा से भिन्न सभी मत-मतान्तरों में निर्गुण की पूजा-प्रतिष्ठा होती है। जो सद्चारित्र से च्युत हो गए हैं उनमें साधुता शोभा नहीं पाती। क्या वह साधुता उस बनी बनाई कृत्रिम ब्राह्मणी की भांति विडम्बना को प्राप्त नहीं होती ? अवश्य होती है। ६३. शाताजाततया बहिस्तमविधा जाता हपूतास्तु ते, शोख्याः संस्कृतिभिः परं प्रकृतितोऽशुखाः कथं शुद्धिगाः। विप्राः स्युविशवा वयं स्विह परं गांजीसमुल्लादिखाः, किं शुद्धपन्ति समूलतोऽतिविकृता अप्राप्ततस्वास्तथा ॥ ज्ञात या अज्ञात रूप से बाहर से आई हुई अशुद्धि संस्कारित विधि से मिटाई जा सकती है। परन्तु जो प्रकृति से ही अशुद्ध हों, वे विशुद्ध ब्राह्मण कैसे हो सकते हैं ? हम तो मूलतः विशुद्ध हैं परन्तु तुम्हारे द्वारा प्रदत्त भोजन खाने से अपवित्र हो गए। परन्तु गाजीखां, मुल्लाखां की भांति जो मूलतः १. भिदृ० ११६ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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