SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ भोभिक्षमहाकाव्यम् ६१. तच्चाकर्म्य पुनर्भृशं. प्रकुपिताः सर्वेऽपि ते ह्यध्वगा, व्याचब्युस्स्वयका वयं कथमहो संघशिताः का बद । सा भीता निजरूपमाह निखिलं तद्वच्च ये वेषिणो, भव्यान् प्रंशयितुं समुद्यततरा भ्रष्टाः स्वयं सद्गुणः॥ (त्रिभिविशेषकम्) किसी ने पूछा-भीखणजी ! ये भी धोवन का पानी और गर्म पानी पीते हैं, साधु का वेष रखते हैं, लोच कराते हैं, फिर ये साधु क्यों नहीं ? तब स्वामीजी बोले-ये बनी-बनाई ब्राह्मणी के साथी हैं। उन्होंने पूछावह बनी-बनाई ब्राह्मणी कैसे ? स्वामीजी बोले-मेर जाति (भिल्ल जाति) के लोगों का एक गांव था। वहां कोई उच्च जाति का घर नहीं था । जो भी महाजन वहां आता है, वह दुःख पाता है। उन महाजनों ने 'मेरो' से कहा- यहां कोई उच्च जाति का घर नहीं है । हम तुम्हें ऋण देते हैं । उच्च जाति के घर के बिना भोजनपानी की कठिनाई होती है । ___तब 'मेर' लोगों ने शहर में जाकर महाजनों से कहा-'आप हमारे गांव में बस जाएं । हम आपका सम्मान करेंगे, सुरक्षा करेंगे।' पर वहां कोई आया नहीं। उस समय एक ढेढ जाति के लोगों का गुरु मर गया था। उसकी पत्नी को मेरों ने ब्राह्मणी बनाया। उसे ब्राह्मणी जैसे कपड़े पहना दिए । उसके लिए स्थान बनाया और तुलसी का पौधा रोपा। स्थान की चने से पुताई की । मेरणियों ने उस घर को ब्राह्मणी के घर जैसा बना दिया। उसके घर में दो रुपये के गेहूं, अठन्नी के मूंग और एक रुपये का घी रख दिया। उसे कहा-'जो महाजन आए, उससे पैसे ले, रोटियां बना, उसे खिलाया कर ।' अब उस गांव में कोई महाजन आता तो मेर लोग उसे उस ब्राह्मणी का घर बतला देते। एक बार चार व्यापारी बहुत दूर से चलते, थके-मांदे वहां आए। उन्होंने मेरों से कहा-कोई उच्च जाति का घर हो तो बताओ। तब उन्होंने ब्राह्मणी का घर बता दिया। व्यापारी आकर बोले-'बहिन ! हमें भोजन करना है।' तब उसने गेहूं की मोटी-मोटी रोटियां बना, गाय के घी से चुपड़ा । दाल बनाई, उसमें काचरी डाली। वे व्यापारी खाते समय भोजन . की बहुत प्रशंसा करते हुए कहने लगे-'हमने अनेक गांवों में भोजन किया है, पर ऐसा स्वादिष्ट भोजन कहीं भी नहीं किया । दाल कैसी स्वादिष्ट बनी है ! उसमें काचरी डालने से उसका स्वाद दुगुना हो गया है।'
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy