________________
पञ्चदशः सर्गः ..
१२३
कुछेक भोले लोग स्वामीजी से कहते-ये साधु अपने व्रतों से भ्रष्ट. हैं, फिर भी ये हमारे से तो अच्छे ही हैं, क्योंकि ये लोच आदि बहुविध कष्ट सहन करते हैं । उनको स्वामीजी कहते -अपना कर्जा न चुकाने वाला क्या कभी अच्छा साहूकार हो सकता है ? कहां तो स्वीकृत अणुव्रतों की परिपालना करने वाला श्रावक और कहां स्वीकृत महाव्रतों को तोड़ने वाला मुनि ! उस मुनि से तो वह श्रावक ही श्रेष्ठ है ।'
५८. तुल्याः सन्त इमे श्लथत्वरमणाः श्राद्धास्तथोत्साहकाः, कर्तारः परिवेषकाश्च सकला भोक्तार एवान्धकाः। अङ्गाराशनमम्बुदाश्रितनिशा कृष्णं ह्यमत्रं तदा, कालं कङ्कटकं हि वज्यमिह किं सर्व हि कृष्णायते ॥ ___ जिनका आचार त्रुटिपूर्ण है और मान्यता भी त्रुटिपूर्ण है, वैसे मुनि तथा उनको प्रोत्साहन देने वाले श्रावक-दोनों समान हैं। वे साधु-श्रावक कैसे हो सकते हैं ? .
स्वामीजी बोले-कोयलों की 'राब' बनाई। उसे काले बर्तन में पकाया । अभ्राच्छादित अमावस की काली रात । अन्धे ही खाने वाले और अन्धे ही परोसने वाले । वे खाते हैं और एक-दूसरे को सावधान करने के लिए कहते हैं-'खबरदार ! कोई काली चीज खाने में न आ जाए । काली चीज को टाल देना।' पर कौन क्या टाले ? सब कुछ काला ही काला है । इसी प्रकार जिनकी मान्यता और आचार की कोई यथार्थता नहीं है, वे साधु और श्रावक कैसे होंगे ?
५९. भिल्लाः स्वावसथे समुज्ज्वलगृहाऽभावाद वरागन्तुक
बौविष्याद् विधवां विधाय गरुडी सब्राह्मणी कृत्रिमाम् । तां पाकाय ररशुरुत्तमविधेरेकान्तपाकालये, यत् किञ्चित् समिताज्यदालिमरिचायः सर्वसामग्यतः ॥ ६०. मुक्तः कश्च चतुर्महाजनजनः सा श्लाधिता संजगी,
स्याद् वा धर्मप्रभेदिका यदि बहुस्वादूभवेत् किं ततः। वन्तः कच्चरिका हता इति रवैः स्थाली क्षिपन्तस्तया, प्रोक्ता मा त्वियमस्ति ड्रम इति नाग याचिता नः कृते ॥
१. भिदृ० ६७। २. वही, १७३ । ३. नुः इति नरस्य ।