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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ५५. व्याजहं तव हे मुने! ऽतिकठिना वाचा प्रयोगाः पुनः, . दृष्टान्ता अपि तं जजल्प मुनिराट् गम्भीरवाताऽऽमये। - सूच्यङ्कः किमु तत्र लोहफलकैर्जायेत तच्छान्तिता, मिथ्यात्वं बहुमिश्रितं मृदुमयों व्येति वाक्यरिदम् ॥
- एक श्रावक ने भीखणजी से कहा-'आप दूसरों को समझाने के लिए परुष भाषा और कठोर दृष्टांतों का प्रयोग करते हैं । क्या यह उचित है।'
स्वामीजी बोले-किसी भाई के गंभीर बात का भयंकर रोग हो गया । वह उस रोग को मिटाने के लिए सूईयों को गर्म कर दागता है, डाम लगाता है पर रोग नहीं मिटता । उस रोग को मिटाने के लिए लोह की छड़ी से दागना पड़ता है । वैसे ही मिथ्यात्व का महारोग मृदु वाक्यों या दृष्टांतों से नहीं मिटता। वह शांत होता है कड़े दृष्टांतों और कठोर वाणी से ।
५६. संबुद्धा अपि ये वदन्ति सरला श्रद्धा तु पृष्ट्वेतरान्,
लास्यामो यदि ते प्रसन्नमनसा वक्ष्यन्ति भिक्षुर्जगौ । सजाते विशवेऽक्षिणी सुभिषजे तत् पारितोषादिकं, दाता पञ्चजना यदा हि कथका नो चेन्न तत् किं वरम् ॥
कछेक ऋजु व्यक्ति भिक्षु से तत्त्व समझ लेने पर भी कहते–'हम श्रद्धा के विषय में दूसरों से पूछेगे । वे यदि प्रसन्न होकर समर्थन देंगे तब हम आपकी श्रद्धा स्वीकार करेंगे ।' उन व्यक्तियों को लक्ष्य कर स्वामीजी बोले-'एक वैद्य ने किसी आदमी की आंखों की शल्य-चिकित्सा की । आंख के ठीक होने पर वैद्य ने पुरस्कार मांगा तब उसने कहा-मैं पंचों को पूडूंगा । यदि वे कहेंगे कि तुम्हें दीखने लग गया है, तब मैं पुरस्कार दूंगा, अन्यथा नहीं। क्या यह उचित है ?'
५७. मुग्धा केऽपि वदन्ति भिक्षुगणिनं भ्रष्टव्रता अप्यहो !,
मत्तस्तु प्रवरा इमे हि यतयो लोचादिकष्टक्षमाः। तान् प्रत्याह महाधमण'मनुजः किं साधुकारोत्तमः, क्वात्ताणुव्रतपालकाः क्व च धृतैयस्ता महासद्वतैः॥
१. भिदृ० ६९ । २. वही, ८०। ३. अधमर्णः-ऋणी, कर्जदार ।