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________________ “पम्बरशः सर्गः १२१ लक्ष्य कर स्वामीजी ने कहा-कोई भोजक साधु का वेश बनाकर आया। लोगों ने पूछा-'आप कहां से आ रहे हैं ?' 'जंगल से।' 'आप किस टोले के हैं ?' 'इंगरनाथजी के टोले के।' 'आपका नाम क्या है ?' 'मेरा नाम पत्थरनाथ है ।' 'आप क्या जानते हैं ?' 'मैं इतना जानता हूं कि बाईस अच्छे और तेरह खोटे ।' 'ओह ! आपने सब कुछ जान लिया। यह तो पूर्वो का सारभूत तत्त्व है ।' यों कहकर लोगों ने पत्थरनाथ को शिर झुका वन्दन किया। ५३. दम्माद् वर्षयितुं स्वनाममहिमानं कोऽपि षष्ठव्रती, प्राहोपोषितकं निवाघसमये धन्यस्त्वमीक्करः। सोऽवग् वोऽस्ति च षष्ठभक्तकमतो मत्तोऽपि धन्यो भवानित्यं कैतवतः प्रशंसयतकि स्वं तं च धिग् धिग् ध्रुवम् ॥ (अपनी महिमा बढ़ाने के लिए जो छल कपटपूर्वक बोलते हैं, उनकी पहिचान के लिए स्वामीजी ने यह दृष्टांत दिया)-किसी ने बेला (दो दिन का तप) किया । वह अपने बेले की महिमा बढ़ाने के लिए उपवास करने वाले का गुणानुवाद करते हुए बोला 'तू धन्य है ! इस भयंकर गर्मी की मौसम में भी तूने उपवास किया है ।' तब उपवास करने वाला बोलामैंने तो उपवास ही किया है, पर तुमने बेला किया है, तुम धन्य हो ।' इस प्रकार छलनापूर्ण वचन के द्वारा अपनी प्रशंसा कराने वाले को धिक्कार है। ५४. भिन्नाचारविचारसंस्कृतिवतां सवृत्तसद्भिः सदा, किं शक्येत समन्वयो हि भवितुं स्याच्चेन्न कल्याणकृत् । युष्माकं कुलजातिवंशमहतां लोकेऽप्यनाबाधतो, नीचर्जातिजुगुप्सितादिककुलैरेक्यं च शक्यं न यः॥ किसी व्यक्ति ने स्वामीजी से कहा- आप साधु सभी एक क्यों नहीं हो जाते ? भीखणजी बोले- 'सच्चरित्र वाले मुनियों का उनसे भिन्न आचार-विचार तथा संस्कृति वाले मुनियों का समन्वय कैसे हो सकता है ? ऐसा हो भी जाए तो वह कल्याणकारी नहीं होता। तुम लोक में उत्तम वंश, कुल-जाति के महाजन लोग निम्न जाति तथा जुगुप्सित कुलों के साथ बिना रोक-टोक एक क्यों नहीं हो जाते ? क्या ऐसी एकता संभव है ?' १. भिदृ० १.१ । २. वही, २४६ । ३. वही, २०६।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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