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श्रोभिक्षुमहाकाव्यम्
कुछ अविवेकी मनुष्य ऐसा कोलाहल करते हैं कि भीखणजी दान और दया-दोनों के उत्थापक हैं और निर्दयी हैं । परन्तु वे यह नहीं समझते कि सावद्य दान और सावध दया की स्थापना करने से वे स्वयं ही स्वयं के द्वारा अभिमत दया-दान के उत्थापक हो जाते हैं । अगर वे सावध दया की स्थापना करते हैं तो उनके सावद्य दान की मान्यता खंडित हो जाती है और यदि सावद्य दान की स्थापना करते हैं तो उनके सावध दया की मान्यता खंडित हो जाती है । (जैसे-एकेन्द्रिय आदि जीवों की दया पालने पर असंयमियों को दिया जाने वाला सावद्य दान रुक जाता है और सावद्य दान देने पर एकेन्द्रिय आदि जीवों की दया रुक जाती है। उदाहरणार्थ- एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को मूला, गाजर-कन्द, बाजरी, गेहूं व कच्चा पानी वगैर खिलाता-पिलाता है, दान देता है । अगर यहां एकेन्द्रिय जीवों की दया पाली जाने की बात स्वीकार करते हैं तो वहां सावद्य दान ठहर नहीं सकता और यदि इनका दान देने की स्थापना करते हैं तो इन एकेन्द्रिय जीवों की दया गायब हो जाती है।)
२८. जीवानां व्यपरोपणोद्यतनृणां शुद्धाशयाः स्युः कथं,
हस्तोवस्तकृपाणिकाप्रहरणहन्तुमनः किं शुभम् । बयान मे क्षुरिकापरीक्षणमिदं नो मारणस्य स्पृहा, तत् किं सत्यमुदीर्य यद् विहननं स्यात् किं विना कामनाम् ॥
२९. पूर्वोदाहरणाजिनेन्द्रसमयेऽहिंसात्मके वीक्ष्यतां,
कार्य हवयमेव यत्र विशदं स्यात्तत्र धर्मोद्भवः । शुद्धिः कारणकार्ययोः शिवपुरप्रावेशिकी तत्त्वतो, नयून्येऽन्यतमस्य तत्र सुकृतश्लेषोऽपि नो कहिचित् ॥ (युग्मम्)
किसी ने कहा -- 'अन्य जीवों की प्राण रक्षा के लिए जीवों की हिंसा में भी भावना शुद्ध है, इसलिए पुण्य होता है।' स्वामीजी बोले-'जीवहिंसा के लिए उद्यत व्यक्ति का आशय पवित्र कैसे हो सकता है ? क्या कटारी से दूसरे पर प्रहार करने वाले का मन पवित्र हो सकता है ? पूछने पर वह कहता है - मैं तो अपनी कटारी का परीक्षण कर रहा हूं । मेरी मारने की इच्छा नहीं है । क्या उसका कथन सत्य हो सकता है ? क्या जीवहिंसा बिना इच्छा के हो सकती है ?'
पूर्वोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्हत् प्रवचन के अनुसार अहिंसा के क्षेत्र में कार्य और भावना-दोनों की शुद्धि अपेक्षित है। वहीं धर्म की निष्पत्ति संभव है । यथार्थ में कार्य और कारण-दोनों की