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________________ १०७ पञ्चदशः सर्गः • वह बोला-'इसमें तो लाभ नहीं, क्योंकि स्वामी की अनुमति के . बिना दिया है।' स्वामीजी बोले-एकेन्द्रिय ने कब कहा कि मेरे प्राण लूटकर दूसरों का पोषण करना। इस न्याय से एकेन्द्रिय को मारने वाला उसके प्राणों की चोरी करता है, इसलिए उसमें लाभ नहीं होता।" (ख) कुछ हिंसाधर्मी कहते हैं-'एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय जीव पुण्यवान् होते हैं । इसलिए एकेन्द्रिय जीव को मारकर पञ्चेन्द्रिय जीव की रक्षा करने में बहुत धर्म होता है। __ स्वामीजी बोले-'एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय का पुण्य अनंत गुणा होता है । कोई पञ्चेन्द्रिय जीव मर रहा हो, उसे कुछ कृमि आदि जीव खिलाकर कोई बचा ले तो उस बचाने वाले को धर्म हुआ या पाप ?' इस प्रकार पूछने पर वह उत्तर देने में असमर्थ हो गया। स्वामीजी बोले-'जैसे द्वीन्द्रिय जीवों को मार कर पञ्चेन्द्रिय को बचाने में धर्म नहीं है, वैसे ही एकेन्द्रिय को मार कर पञ्चेन्द्रिय को बचाने में भी धर्म नहीं है।" २६. आमाम्भः परिपानतो यदि भवेन् मिश्च धर्मस्तवा, कि नो तवरणऽपि धार्मिकजनरालोच्यता धोधनः। धान्यक्षेपणतः कपोतपुरतः स्याद् वा क्या निर्मला, तत् सर्पादिनिबर्हणेन पुरषत्राणेऽपि किं स्यान्न सा॥ किसी ने कहा कि सजीव पानी पिलाने में पुण्य अथवा पुण्य-पाप (मिश्र) धर्म होता है । स्वामीजी बोले- यदि ऐसा है तो पानी के जीवों की दया के लिए पानी पिलाने वाले से पानी छीनने में भी पुण्य अथवा मिश्रधर्म होगा। यह बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए विचारणीय है। किसी ने कहा- कबूतरों की दया के निमित्त उनके आगे धान्य डालना निर्मल दया है। यदि यह दया है तो मनुष्य आदि प्राणियों को बचाने के लिए सर्प आदि को मार डालना भी दया क्यों नहीं होगी ? पुण्य या मिश्रधर्म क्यों नहीं होगा ?. २७. भिक्षुनियादयस्य नितरामुत्थापको निर्दय, इत्यं केप्यविवेकिनो बहुतरं कुर्वन्ति कोलाहलम् । किन्त्वेतन्न विदन्ति ते न तु मिथः सावध तत् स्थापना दस्मत्स्वेव समेति तत् खलु तयोरुत्थापकत्वं स्वयम् ॥ १. भिदृ० २६४ । २. वही, २४८ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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