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________________ चतुर्दशः सर्गः ३७. समुत्पन्ने कार्ये परतरं उपादीयत इह, सूते कार्ये पुंसां सपदि परिमुच्येत सहसा । क्षणे' प्रेम्णा कण्ठे सुपरिहितहारो दिवि मुदा, महोभिर्व्यावृत्तेस्तदनु परिहीयेत किमु न ॥ इस संसार में कोई कार्य उत्पन्न होने पर पराये को भी अपना बना लिया जाता है । कार्य हो जाने पर जल्दी ही उसे छोड दिया जाता है । जैसे महोत्सव में बड़े प्रेम से हार गले में पहना जाता है और उत्सव के पूर्ण हो जाने पर उसे उतार दिया जाता है । ३८. हृषीका' ज्येतान्युत्पयनयनशीलान्यवरतमतो धृत्वा हस्ते प्रशमदमरश्मीन् बृढतरान् । अवेयुर्ये दक्षा इव दमनतः शूकलहयान्, नरास्ते निर्विघ्नं विदधति सुखं निर्वृतिपुरे ॥ ये इन्द्रियां मनुष्य को निरन्तर उत्पथ में ले जाने वाली हैं । परन्तु जो दक्ष मनुष्य प्रशमन एवं दमन विषयनिवृत्ति रूप दृढ़ रश्मियों को हाथ में थामे अविनीत घोड़े की तरह उनका दमन कर लेते हैं वे निर्विघ्नता से मोक्ष सुखों को प्राप्त होते हैं । ३९. अहो ! स्निग्धो मुग्धो विषमविषयाक्रान्तमनुजो, यतः स्वस्वरूप्यं किमपि नहि वेत्तुं प्रभवति ! वृथा क्लेशाक्रोशः क्षपयति सुज मेदमफलं, ८३ यथा श्वात्माकृत्या मुकुरनिलये संस्थितिमितः ॥ अहो ! विषम विषयों से आक्रांत यह आसक्त और मूर्ख मनुष्य अपने स्वरूप को भी जानने के लिए समर्थ नहीं है और यह अपने मनुष्य जन्म को नानाविध क्लेशों एवं आक्रोशों द्वारा वैसे ही व्यर्थ खो देता है जैसे कांच के घर में रहा हुआ कुत्ता अपनी ही आकृति से लड़-झगड़ कर प्राण गवां देता है । ४०. सितं ह्याशापाशं जगदमितचिन्तककरणः, ear स्युस्ताः पूर्णा जलनिधितरङ्गा इव हताः । वितन्वन्तस्तास्ताः कतिपयजना नो प्रतिगता, गमिष्यन्त्येवं कि नहि नहि च गच्छन्ति विवशाः ॥ १. क्षणः - उत्सव (महः क्षणोद्धवोद्वर्षा - अभि० ६ । १४४ ) । २. महः : - उत्सव । ३. हृषीकम् - इन्द्रिय ( हृषीकमक्षं करणं स्रोत: अभि० ६।१९ ) ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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