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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
यह जगत् अमित कामनाओं के आशा-पाश में बंधा हुआ है। ये कामनाएं उछलती हुई समुद्र की तरङ्गों की तरह कब पूर्ण होंगी, ऐसा चिंतन करते-करते कितने मनुष्य विवश होकर इस संसार से नहीं चले गये, नहीं जायेंगे एवं नहीं जा रहे हैं ।
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४१. अहो ! चिन्तादेव्या विततमिह साम्राज्यमसितं, ततः कश्चिच्चिन्तारहित इव नाऽऽलोकनिगमे । विलीना स्यादेका तदितरतरेकैकसबला,
न तच्चिन्ताप्रान्तः सुकृतमिव चिन्तामणिमृते ॥
हे भव्यो ! जगत् में चितादेवी का कितना विशाल साम्राज्य जमा हुआ है जिससे कोई भी मनुष्य निश्चिन्त नहीं दिख पड़ता । एक चिंता पूर्ण होते ही उससे सबल दूसरी चिंताएं प्रगट होती रहती हैं। अतः इन चिंताओं का अन्त चिन्तामणिरत्न तुल्य जिनधर्म के बिना नहीं हो सकता ।
४२. अनिष्टः क्षेत्राद्यैः सततपरमाधार्मिकसुरंरमन्तक्षुत्तृष्णातप तुहिनसन्तापबहुलैः । मिथो मारासारैर्मथितमनसां नारकजुषां पराधीनानां तन्नरकनिलये क्वास्ति च सुखम् ॥
हे भव्यो ! नरक में अनिष्ट क्षेत्र आदि का तथा परमाधार्मिक देवों द्वारा दिए जाने वाले कष्ट निरन्तर होते रहते हैं । वहां अनन्त भूख, तृषा, आतप, शीत आदि सन्तापों की बहुलता है । नारक परस्पर लड़ते-झगड़ते हैं, मारपीट करते रहते हैं । उन पराधीन नारकों को नरक में सुख कहां है ?
४३. पतच्छीतातापानिलजलधरासारविसरलाद् भारारोपैरतिवहनतोत्रादिहननंः । पिपासाक्षुत्क्षोमं विविधवधबन्धे रसुखिनां, तिरश्चां स्तानां क्वचन लवलेशं ह्यपि सुखम् ॥
वैसे ही शीत, ताप, हवा, वेगवान् वर्षा, जबरदस्ती भारारोपण, अतिवहन, चाबुकादिक के प्रहार एवं भूख - तृषा भय एवं विविध वध बन्धनादि दुःखों से संत्रस्त पशुओं को लेशमात्र भी सुख कहां है ?
४४. महाम्लानाहारंगंहनगर भावासवसनप्रसूत्याधिव्याधिप्रजरमरदारिद्र्यकरजः । पराभूताकूताद्भुततरविपक्षामि जनितः, क्व वासोयैः क्रोडीकृतनरवराणामपि सुखम् ॥