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३३. पिता माता जाता कलितकुलकान्ताऽक लिसुतः, किमेते मे तत्त्वादहमपि किमेषामनुगतः । समायाते काले विपदि यदि वा निष्ठितधने, शरण्यः कः कस्य त्विहपरभवे कोऽनुगमकः ॥
इस संसार में माता, पिता, भ्राता, कुलीन कांता एवं विनयी पुत्र क्या मेरे हैं और क्या मैं भी उनका हूं ? मृत्यु, विपदा तथा निर्धनता आने पर यहां कौन किसको शरण देने वाला है और परभव में कौन साथ जाने वाला है ?
३४. अहो कोऽहं को मे कुत इह समेतः क्व च गमी, प्रकुर्वे किं चात्रोचितमनुचितं चेतनचिते । किल्लाभालाभावितिमतिमता स्वापणिकवत्, विचिन्त्यं चित्तान्तस्ततकरतले नाऽऽयतिगता ॥
श्री भिक्षु महाकाव्यम्
हे भव्यो ! मैं कौन हूं ? मेरा कौन है ? मैं यहां कहां से आया हूं ? मैं कहां जाऊंगा ? मैं आत्मा की पुष्टि के लिए उचित कर रहा हूं या अनुचित ? मैंने मनुष्य जन्म में कितना लाभ या अलाभ कमाया - इस प्रकार एक निपुण दुकानदार की भांति बुद्धिमान् मनुष्य को करतल में मृत्यु के आने से पूर्व सोचना चाहिए ।
३५. इयं बाह्या पुष्टिः श्वयथुरिव सर्वस्वहरणी, सुखं बाह्यं कण्डूकरणमिव कण्डूयिन इदम् ।
अयं मिष्टो मोहाद् विषयिविषयानन्दनिवहो, यथा सर्पक्ष्वेडालगति कटुनिम्बोऽपि मधुरः ॥
यह बाह्य पुष्टि सोथ (सूजन) की तरह सर्वस्व हरण करने वाली है • एवं बाह्य सुख भी खुजली से ग्रस्त व्यक्ति के खुजलाने के समान है । ये पञ्चेन्द्रियों के विषयों के आनन्द भी मोह के कारण वैसे मीठे लगते हैं जैसे सांप से डसे हुए मनुष्य को नीम मीठा लगता है ।
३६. प्रियः स्वार्थः सार्थस्त्रिजगति यथावद् भवभृतां,
परार्थोऽयं प्रायो न हि न हि तथा पश्यत दृशा । उपास्तेऽमाजोऽयं किल कमलपाणि' वसुकृते, विनाऽमां तत्पार्श्वे क्षणमपि कृतार्थो व्रजति न ॥
तीनों लोक में मनुष्यों को धन एवं अपना स्वार्थ ही प्रिय है । अत: प्रायः वे औरों को नहीं देखते । जैसे अमावस्या का चन्द्र किरणों के लिए सूर्य के पास जाता है, पर स्वार्थ पूरा हो जाने पर वह अमावस के बिना सूर्य - पास क्षणभर के लिए भी नहीं जाता ।
१. अब्ज : - चन्द्रमा । २. कमलपाणि: - सूर्य ।