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________________ चतुर्वशः सर्गः ८१ • जैसे वनहस्ती छोटे से तालाब में प्रवेश कर दुःख पाता है, वैसे ही हे श्रोताओ ! तुम मत्त होकर कामनाओं के अधम सरोवर में प्रवेश कर यदि क्लान्त हो गये हो एवं महा कर्दम से लिप्त हो गये हो तो जिनेश्वर प्रभु द्वारा निर्दिष्ट अमल सुकृतमय पीयूष सरिता में सुख से स्नान कर पवित्र से भी पवित्र एवं हलके बन जाओ। ३०. गदव्यालर्यावद् व्यषितमिवमंगं न जरसा, न यावत् क्षीणायुनं च गतबला होम्नियगणाः । नरस्तावद् धर्मे कुल्त यतनं श्रीममवता, समन्तात् सन्दीप्ते किमिह सदने कूपखननम् ॥ हे भव्यो ! यह शरीर जब तक रोग रूपी दुष्ट हाथी से तथा बुढापे से व्यथित न हो, आयु क्षीण न हो, इन्द्रियां निर्बल न हों, तब तक श्री वीतराग के धर्म में प्रयत्नशील बनो। क्योंकि घर में चारों ओर अग्नि लग जाने के पश्चात् कूप खोदने से क्या प्रयोजन ! ३१. करिष्येऽहं पश्चाग्जिनपसुकृतं चिन्तनमिवं, न सम्यक् को विवानिजमरणसीमान्तममलम् ।। विधातव्यं यत्तद् द्रुततरमिदानों हि पुरुष. . विधेयं सन्धेयं ह्यसु निरितेषूद्भवति किम् ॥ ' 'मैं बाद में जिनधर्म की उपासना करूंगा'-यह चिन्त: अच्छा नहीं है क्योंकि स्वयं के मौत की सीमा को कौन जानता है ? जो कुछ करना है उसे शीघ्र ही अभी कर लेना चाहिए क्योंकि प्राण निकलने के बाद फिर क्या होना है ? ३२. प्रयाणोत्काः प्राणा इव रणमुखे कातरनराः, विपास्ता सम्पत् तदपि चपलेवातिचपला । कुटुम्बः सस्वार्थश्चटपुरुषवन मेदुरमनाः, किमर्थ संसारे तदपि ननु मूर्छन्ति मनुजाः ॥ हे भव्यो ! जैसे रण के मोर्चे से कायर पुरुष पलायन करने के लिए तत्पर रहता है वैसे ही प्राणियों के प्राण भी पलायन करने के लिए तैयार रहते हैं । सम्पदाएं भी विपदाओं से ग्रस्त एवं बिजली की तरह पञ्चल हैं। सारा कुटम्ब चापलस की तरह स्वार्थी है। ऐसी स्थिति में भी मनुष्य संसार में क्यों मूच्छित हो रहे हैं ?
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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