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________________ द्वितीय अध्याय /29 इस प्रकार 103 श्लोक पर्यन्त अर्ककीर्ति का रण प्रस्थान तथा आगे के श्लोकों में युद्धार्थ सजी हुई सेना का वर्णन चक्रबन्ध वृत्त के द्वारा दिखाकर सप्तम सर्ग की समाप्ति की गयी है। अष्ठमः सर्गः अष्टम सर्ग में अर्ककीर्ति एवं जयकुमार के दल से भयङ्कर युद्ध दिखाया गया है । जिसमें वर्णित है कि सैन्य के भयङ्कर शब्दों से आकाश भर गया । सूर्य मानो भय के कारण उठी धूलि से छिप गया । उठी हुई धूलि से घने अन्धकार में हाथों में चंचल चमकती हुई खड्ग पंक्ति को बिजली समझकर मयूर शावक के-के ध्वनि करने लगे । सूर्य के ढक जाने एवं आकाश में अत्यन्त घने अन्धकार से व्याप्त होने के कारण युद्ध करते हुए वीरों के रक्त प्रवाह में संध्या काल की शोभा प्रकट हो गयी। उस समय में गजारोही-गजारोही पर पदातिपदाति पर, रथी-रथी पर, अश्वारोही-अश्वारोही पर आक्रमण करने लगा । इस प्रकार तुल्य प्रतिद्वन्दियों का युद्ध होने लगा । विविध रूपों में दोनों पक्षों में भयंकर घमासान युद्ध हुआ । अर्ककीर्ति पक्ष की तुलना में जयकुमार अपने को तुच्छ समझने लगा जिससे नागचर देव का आसन कम्पित हो उठा क्योंकि पुण्यशाली व्यक्ति का वहाव देव को अनुकूल बना लेता है । उस नागचर देव ने नागपाश और अर्धचन्द्र वाण प्रदान किया । जयकुमार उस की सहायता से शत्रुओं को आत्म समर्पण करा दिया एवं अर्ककीर्ति को नागपाश से बाँधकर अपने रथ पर डाल दिया। अनेक लोगों ने उसके विजय के कारण को अनेक ढंग से माना । लेकिन ग्रन्थकर्ता की दृष्टि में सुलोचना द्वारा अर्हन् के सद्गुणों की स्तुति ही कारण है। युद्धोत्पन्न पाप की निवृत्ति के लिये महाराज अकम्पन ने अर्हन् देव की पूजा की, पश्चात् अपराजित मन्त्र जप करने वाली सुलोचना को स्नेह भरी दृष्टि से देखा एवं बोले - 'हे पुत्रि! अर्हन् देव की कृपा से तेरे इच्छानुसार वीरशिरोमणि जयकुमार को विजय प्राप्त हुयी । हे माननीया ! ममता छोड़ो घर चलो ऐसा कहकर उसके साथ महाराज अकम्पन घर चल दिये। इस प्रकार चक्रबन्ध द्वारा अर्क पराभव में अष्टम सर्ग की समाप्ति की गयी है । नवमः सर्ग: नवम सर्ग में दिखाया गया है कि जयकुमार की विजय एवं अर्ककीर्ति की पराजय से महाराज अकम्पन प्रसन्न न होकर अन्यमनस्क हो गये । और अर्ककीर्ति को प्रसन्न करने का उपाय सोचने लगे । सोचा कि अक्षमाला नाम की दूसरी कन्या अर्ककीर्ति को प्रसन्नता हेतु अर्पण कर देने से ही मुझमें प्रसन्नता आ सकती है । व्याकुलता को दूर करने के लिये अन्य कोई गति नहीं है ऐसा सोचकर अकम्पन सेना विनाशक अर्ककीर्ति के पास पहुँचे । अनेक प्रकार से अनुनय-विनय कर अपनी पुत्री अक्षमाला को ग्रहण करने का निवेदन किया
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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