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330 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन नहीं करना, पृथिवी पर सोना, दाँतौन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और दिन में एक बार आहार लेना, इन्हें अट्ठाईस मुल गुण कहते हैं । इनके सिवाय चौरासी लाख उत्तर गुण भी हैं, महामुनि उन सबके पालन करने में प्रयत्न करते थे । ब्रह्मचर्य :
आत्मतत्त्वरूप में लीन रहना अथवा स्त्री मात्र का परित्याग करना जैन मत में ब्रह्मचर्य कहा गया है। दशधर्म : - क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस धर्म है । पंचपरमेष्ठी :
अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी कहलाते हैं । शुक्लध्यान :
आर्तध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान ये ध्यान के चार भेद हैं"। पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं। शलाका पुरुष :
चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण", नव प्रतिनारायण", नव बलभद्र, ये त्रिषष्टि पुरुष तिरसठ शलाका पुरुष कहलाते हैं। मङ्गलाष्टक :
छत्र, ध्वज, कलश, चामर, सुप्रतिष्ठक (ठोना) भंगार (झारी) और तालपत्र (पंख) इन आठ मंगल द्रव्यों को मङ्गलाष्टक कहा गया है । नैर्ग्रन्थीः . दिगम्बर मुनि को जैन ग्रन्थों में नैर्ग्रन्थी के नाम से जाना गया है। नवधाभक्ति : ___इसे नव पुण्य के नाम से जाना जाता है । प्रतिग्रहण-पडिगाहना, उच्च स्थान पर बैठना, पैर धोना, अष्टद्रव्य से पूजा करना, नमस्कार करना, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और अन्न जलशुद्धि ये नवधाभक्ति कहे जाते हैं।
जयोदयगत ललित सूक्तियाँ 1. अनुभवन्ति भवन्ति भवान्तकाः । 2. नीतिविद्योऽभिनन्दति ।
ज.म. 7/31
ज.म. 1/94