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ऋणी हूँ ।
प्रकृत विषय पर शोध करने की जिज्ञासा को पूर्ण करने वाले गुरु डॉ. अतुल चन्द्र बनर्जी का मैं हृदय से आभारी हूँ, जिनकी प्रेरणा से ही मैं कार्य सम्पन्न कर सका ।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्राध्यापक गुरुवर डॉ. दशरथ द्विवेदी के निर्देशन में इस कार्य को सम्पन्न करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मुझ जैसा अनभ्यस्त शोधार्थी भी जो उडुप द्वारा इस दुस्तर सागर का सन्तरण कर सका वह आपकी ही प्रेरणा, प्रोत्साहन और सतत मार्गदर्शन का परिणाम है । गुरुवर डॉ. श्री द्विवेदी के पास स्वच्छ दृष्टि, अद्भूत कार्य निष्ठा के साथ-साथ वात्सल्यपूर्ण हृदय भी है, शिष्य होने के कारण लेखक उसका सहज अधिकारी रहा है । संस्कृत विभाग के अन्य गुरुजनों के प्रति भी मैं अत्यन्त श्रद्धानत हूँ, जिनकी शुभाशंसा से यह कार्य पूर्ण हो सका।
शोध हेतु हर सम्भव सहयोग प्रदान करने वाले पूज्य पितामह पं. श्री भवानी बदल पाण्डेय जी के प्रति श्रद्धा से नत होता हूँ जिन्होंने अपनी जर्जर अवस्था में भी इस ग्रन्थ को पढ़ाया ।
गोरक्षनाथ संस्कृत विद्या पीठ के साहित्य विभागाध्यक्ष श्रद्धेय आचार्य श्री चन्द्रशेखर मिश्र जी के समय-समय पर सत्परामर्श मिलने के साथ-साथ सामग्री-संकलन और उसके विवेचन में निरन्तर यथेष्ठ सहायता मिलती रही उसका मैं आजीवन आभारी हूँ । जयोदय महाकाव्य के अमर कवि श्री भूरामल जी शास्त्री के विषय में उनके प्रिय शिष्य श्री विद्यासागर जी महाराज से मुझे संभव जानकारी प्राप्त हुई ही उनका भरपूर आर्शीवाद भी मिला । तदर्थ मैं उनके प्रति सतत ऋद्धावनत हूँ ।
समय-समय पर जिन अन्य अनेक महानुभावों से सहायता प्राप्त होती रही है, लेखक उन सबके प्रति भी हृदय से कृतज्ञ है ।
प्रस्तुतकर्ता कैलाशपति पाण्डेय
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