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________________ जयोदय महाकाव्य में प्रस्तुत स्थान /227 इसी को अन्य लोग अलौकिक प्रत्यक्षात्मक ज्ञान कहते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है कि "ईन्तिरायज्ञानावरण क्षयोपशमेसति परमनोगतस्यार्थस्य स्फुटं परिच्छेकं ज्ञानं मनः पर्याय' पर्याय शब्द का अर्थ है 'पर्ययणं पर्यायः अर्थात् परितः अन्यस्य मनसि गमनम्।' केवलज्ञान : तपस्वी लोग जिसके लिये तपस्या क्रिया विशेष का सेवन करते हैं । ऐसा ज्ञान जो अन्य ज्ञान से सम्पृक्त नहीं होता उसे केवल ज्ञान कहते हैं । यह अन्य ज्ञान से पृथकू होने के कारण केवल कहा गया है । इसका लक्षण इस प्रकार दिया गया है-"तपः क्रियाविशेषान् यदर्थे सेवन्ते तपस्विनः तद्ज्ञानमन्यज्ञानाऽसंसृष्टं केवलम् ।" सम्यक्चारित्रय : ज्ञान के सम्पूर्ण आवरण सम्यक् चारित्रय से नष्ट होते हैं और आवरणों के नष्ट होने पर मोक्षप्रद ज्ञान उत्पन्न होता है इसी को तत्त्व ज्ञान कहते हैं । इसका लक्षण इस प्रकार है - " संसरणकर्मोच्छित्तौ उद्यतस्य श्रद्धानस्य ज्ञानवतः पाप गमनकारण क्रिया निवृत्ति सम्यक् चारित्रयं तदेतत् स प्रपंचमुक्तमर्हता।' यह सम्यक् चारित्रय व्रत भेद से पाँच प्रकार का होता है- (1) अहिंसा, (2) सुनृत् (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य (5) अपरिग्रह । स्याद्वाद : ____ 'स्याद्वाद' में स्यात्' शब्द निपात अव्यय है जो तिङन्त प्रतिरूपक अनेकान्त का द्योतक है । क्योंकि 'स्यात्' शब्द अस् धातु के विधिलिङ्ग में भी मिलता है, जो सम्भावना अर्थ तथा अनिश्चय का द्योतक है । जैसे- 'स्यादस्ति' वाक्य में अस्ति के प्रति विशेषण का काम करने वाला यह 'स्यात्' निपात है । अस्ति के साथ योग होने से क्रिया के रूप में है। तात्पर्य यह है कि 'स्यात्' सार्थक है क्रियापद की भांति देखने में प्रतीत होता है एवं अनिश्चय का व्यंजक है । यह स्यात् ही अपभ्रंश भाषा में (उर्दू) 'शायद' का बोधक है । अपने विधेय 'अस्ति' आदि के साथ जुटने पर यह 'स्यात्' शब्द विशेषण बन जाता है । किन्तु यदि केवल 'स्यात्' प्रयोग हो तो अनर्थक प्रतीत होता है । 'स्यादस्ति' अर्थात् 'कथञ्चिदस्ति' इस अर्थ का वाचक है जिसका अर्थ 'किसी प्रकार है' ऐसा होगा । अतः स्यात् शब्द की सार्थकता अनिश्चयात्मक अनेकान्त रूप अर्थ में है । 'स्यादतीति स्याद्वादः' स्याद् का अर्थ कथञ्चित होने से आदेय (ग्राह्य अस्ति-नास्ति) यह वस्तु इन विशेष रूपों से युक्त है, जिसका निश्चय नहीं कर सकते। त्याज्य नहीं है, अपितु ग्राह्य है । यह सम्भव तभी होगा जबकि वस्तु का स्वरूप अनिश्चित हो । सप्तभङ्गी न्याय जो जैन दर्शन का है, उसके अनुसार इस प्रकार इसकी व्याख्या की गयी है - "वाक्येष्वनेकान्तद्योती . गम्यं प्रतिविशेषम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात् तिङन्तप्रतिरूपकः॥” इति यदि पुनः एकान्तद्योतक: स्यात् शब्दो यं स्यात् तदा स्यादस्ति इति वाक्ये स्यात् पदमनर्थंक स्यात् । अनेकान्तद्योतकत्वे तु स्यादस्ति कथञ्चिदस्तीति स्याद । अनेकात्व पदात् कथञ्चित्
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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