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भूमिका
एम. ए. पास. करने के बाद जब मैंने अपने परमपूज्य गुरुवर डॉ. रामअवध पाण्डेय रीडर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से शोध कार्य करने की अभिलाषा व्यक्त की उन्होंने पूर्णतया अनालोचित वाणीभूषण ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री जी (आचार्य श्री ज्ञानसागर जी) विरचित जयोदय महाकाव्य की समीक्षा करने के लिये सुझाव दिया । इतना ही नहीं आपने अनुपलब्ध इस ग्रन्थ की मूल प्रति भी देकर मुझे आजीवन ऋणी बना दिया। ततः इस ग्रन्थ पर शोध करने की जिज्ञासा गुरु डॉ. अतुल चन्द्र बनर्जी, अध्यक्ष संस्कृत विभाग गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर से की तो उन्होंने भी इसकी समीक्षा के लिये सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी । अनन्तर मैंने इस काव्य तथा सम्बन्धित साहित्य का गम्भीर परिशीलन प्रारम्भ कर दिया ।
अनुवाद, टीका, टिप्पणी विहीन मूल मात्र काव्य के अध्ययनार्थ मुझे बड़ी कठिनाईयां हुई । सतत प्रयास के बाद सौभाग्य से मुझे 'जयोदय महाकाव्य' का पूर्वार्ध कविकृत स्वोपज्ञ संस्कृत टीका एवं हिन्दी अनुवाद समेत उपलब्ध हो गया जो श्री ज्ञानसागर ग्रन्थ माला व्यावर (राजस्थान) से प्रकाशित हुआ था । इसके प्रकाशक पं. प्रकाश चन्द्र जैन हैं । इस पूर्वार्ध भागमें तेरह सर्ग मात्र हैं । इसके उपलब्ध हो जाने से मेरे अध्ययन में विशेष सुविधा हुई। काव्य के शेष अंशो का मैंने अपने पूज्य पितामह पं. श्री भवानी बदल पाण्डेय जी से अध्ययन किया। वैसे इस महाकाव्य की क्लिष्टता से अन्तरा-अन्तरा मुझे बड़ी निराशा होती थी किन्तु निर्देशक गुरुवर डॉ. दशरथ द्विवेदी जी से मुझे विशेष सम्बल मिलता रहा। "जयोदय महाकाव्य" अट्ठाईस सर्ग का एक विशाल एवं उत्तम महाकाव्य है, जिसमें महाकाव्य के समग्र लक्षण निहित हैं । मैंने इस काव्य की नैकशः आवृत्ति की निरन्तर कार्य करता रहा, जिसका परिणाम है, प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध, "जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन" इस अध्ययन को मैंने नव लघु अध्यायों में विभक्त किया है, जिसका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - . प्रथम अध्याय में मैंने जयोदय महाकाव्य के कवि भूरामल जी (अ.
श्री ज्ञानसागर जी) के जन्म, समय, स्थान, कृतित्व एवं व्यक्तिन पर