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अष्ठम अध्याय / 207
पज्झटिका :
जिस छन्द में प्रतिपाद में युग्मविच्छिन्न षोडश मात्राएँ हों तथा नवम मात्रा गुरु हो और एक भी जगण न हो, उसे पज्झटिका कहते हैं 4 । इस पज्झटिका छन्द में नवम वर्ण की गुरुता का कहीं पर व्यभिचार भी देख पड़ता है अर्थात् नवम वर्ण के गुरु होने से छन्द की कुछ सुन्दरता बढ़ जाती है। नवम वर्ण का गुरु होना लक्षण में नहीं मानना चाहिए" । उदाहरण'अथ तीरारामे सरितायां रुचिरासीन्महती जनतायाः । आत्मभूतनयताधिगमाय सुललितारान्वितोत्सवाय
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वैताली :
जहाँ प्रथम, तृतीय चरण में चौदह मात्रा एवं द्वितीय चतुर्थ चरण में सोलह मात्राएँ होती हों, परन्तु पदान्त में रगण, लघु और गुरु का प्रयोग भी हो तो उसे वैताली छन्द कहते हैं। जैसे
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"तरलैरलकैः समाकुला ललनालिङ्गनमङ्गरङ्गिणा अनुकूलमवाप्य सत्वरं रससारं समवाप चापरा ॥"
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पन्द्रहवें सर्ग में उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, आर्या, रथोद्धता, शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, अनुष्टुप, द्रुतविलम्बित वसन्ततिलका, स्वागता प्रभृति छन्दों का वर्णन हुआ है । परन्तु कहीं चरण अपूर्ण भी पड़ा हुआ है जैसे श्लोक संख्या तैंतीस का तृतीय चरण अपूर्ण है । इस प्रकार सर्ग की शार्दूलविक्रीडित छन्द के माध्यम से समाप्ति की गयी है ।
सोलहवें सर्ग में उपजाति, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, पज्झटिका, आर्या, वसन्ततिलका, रथोद्धता, स्वागता, सुन्दरी एवं सर्गान्त में शार्दूलविक्रीडित छन्द का प्रयोग करके पर्यवसान किया गया
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सत्रहवें सर्ग में उपजाति, वसन्ततिलक, इन्द्रवज्रा अनुष्टुप् शिखरिणी, पज्झटिका, सुन्दरी, मालिनी छन्दों का प्रयोग कर शार्दूलविक्रीडित से सर्ग का समापन दिखाया गया है ।
अट्ठारहवें सर्ग में वसन्ततिलक, अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, आर्या, मन्दाक्रान्ता, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा आदि छन्दों का वर्णन कर शार्दूलविक्रीडित से सर्ग की समाप्ति की गयी है ।
उन्नीसवें सर्ग में उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, अनुष्टुप्, वसन्ततिलक, पज्झटिका, आर्या एवं अन्त में शार्दूलविक्रीडित छन्द का वर्णन कर सर्ग की समाप्ति की गयी है ।
बीसवें सर्ग में पज्झटिका, सुन्दरी, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित, भुजङ्गप्रयात, आर्या, स्वागता, मालिनी, अनुष्टुप्, वंशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपजाति, दोहडिका आदि छन्दों का प्रयोग कर शार्दूलविक्रीडित से सर्ग का समापन किया गया है।
बीसवें सर्ग में आये हुए दोहडिका छन्द का लक्षण उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ ।