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206 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
इसके अतिरिक्त दसम सर्ग में सुन्दरी, अनुष्टुप् वसन्ततिलक, रथोद्धता छन्दों का वर्णन एक सौ पन्द्रह श्लोक के अनन्तर पुष्पिताग्रा छन्द का प्रयोग हुआ है, जिसका लक्षण - उदाहरण निम्नलिखित है
पुष्पिताग्रा :
प्रथम तथा तृतीय पाद में दो नगण तथा एक रगण के अनन्तर यगण होने पर तथा द्वितीय और चतुर्थ पाद में नगण, जगण, जगण, रगण तथा एक गुरु होने से पुष्पिताग्रा नामक छन्द होता है । यथा
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"अभवदपि परस्परप्रसादः पुनरुभयोरिह तोषपोषवादः । उषसि दिगनुरागिणीति पूर्वा रविरपि हृष्टवपुर्विदो विदुर्वा ॥ 61 इस छन्द के बाद सर्ग के अन्त में शार्दूलविक्रीडित का प्रयोग कर सर्ग का पर्यवसान किया गया है ।
एकादशवें सर्ग में उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, वंशस्थ छन्दों का वर्णन कर बीच में रथोद्धता पुनः अनुष्टुप् छन्द का वर्णन करते हुए अन्त में शार्दूलविक्रीडित से सर्ग की समाप्ति की गयी है ।
बारहवें सर्ग में एक सौ सत्ताईस श्लोक पर्यन्त सुन्दरी छन्द का प्रयोग हुआ है । पुनः आगे के श्लोकों में क्रमश: रथोद्धता, अनुष्टुप्, उपजाति प्रभृति छन्दों में सर्ग की रचना करते हुए महाकवि ने शार्दूलविक्रीडित से सर्ग की समाप्ति की है !
मालिनी :
जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक मगण, तथा दो यगण हों एवं आठ, सात पर विराम हो उसे मालिनी छन्द कहते हैं 2 । यथा
कटक सनाथस्तस्थिवान् गगनपाथस्त्रोतसि
शिरसि
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मर्त्यनाथः,
" इति शुचिनि
तपति
क विकृतगुणगाथः
पाथस्तावदागत्य श्रीजिनो यस्य नाथ:
11'163
इसके अतिरिक्त इस तेरहवें सर्ग में सुन्दरी, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा प्रभृति वृत्तों को उपनिबद्ध कर शार्दूलविक्रीडित से सर्ग का पर्यवसान दिखाया गया है 1
स्वेच्छयाथ
माथः,
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चौदहवें सर्ग में पज्झटिका छन्द का बहुल प्रयोग कर वंशस्थ, रथोद्धता, आर्या, वैताली, सुन्दरी, मालिनी के अनन्तर शार्दूलविक्रीडित से सर्ग की समाप्ति की गयी है । पज्झटिका एवं वैताली को छोड़कर शेष का विवेचन उपर्युक्त सर्गों में किया जा चुका है। यहाँ केवल पज्झटिका एवं वैताली का लक्षण एवं उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है ।