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198/ जयादय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन ...
इन गणों का ससौविध्य ज्ञान अधोलिखित सूत्र के द्वारा किया जाता है - सूत्र ‘यमाताराजभानसलगा' । इसके ज्ञानार्थ निम्न वर्णित श्लोक अत्यधिक सहायक
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"मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्चनकारो भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः । जो गुरुमध्यगतो रलमध्यः सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः ॥'' आदिमध्यावसानेषु यरता यान्ति लाघवम् । भ-ज-सा, गौरवं यान्ति, मनौ तु गुरु लाघवम् ॥112
इसकी सरलता के लिए गणों का नाम, स्वरूप, देवता, फल, मित्रामित्र तथा शुभाशुभ का भी निर्देश किया गया है, जो इस प्रकार है :-13 गणनाम यगण मगण तगण रगण. जगण भगण नगण सगण ) स्वरूप ।ऽऽ
। ऽ । ॥ ॥ ॥ देवता जल पृथ्वी गगन अग्नि सूर्य चन्द्र स्वर्ग वायु फल . बुद्धि श्री धननाश विनाश राग यश आयु भ्रमण मित्रामित्र दास मित्र उदासीन शत्रु उदासीन दास मित्र शत्रु शुभाशुभ शुभ शुभ अशुभ अशुभ अशुभ शुभ शुभ अशुभ
__ भाषा की गति और प्रवाह आदि से भी छन्दों का प्रगाढ़ सम्बन्ध है । अतएव वैदिक भाषा के छन्द, लौकिक भाषा के छन्दों से साम्य नहीं रखते हैं । इसी प्रकार विभिन्न भाषाओं के छन्द भी उक्त भेद से ग्रस्त हैं । भाषा का प्रवाह अपनी अनुकूलता हेतु नवीन छन्दों के निर्माण के लिये बाध्य करता है । संस्कृत जगत् में वेद के पश्चात् लौकिक छन्द महर्षि वाल्मीकि के मुख से प्रथम-प्रथम अनुष्टुप् के रूप में अभिव्यक्त हुआ । तत्पश्चात् महाभारत एवं अन्यान्य काव्यों में भी पूर्णरूप से स्थान प्राप्त किया । व्यापक प्रभाव को संगत, व्यवस्थित, मर्यादित एवं रसानुकूल स्वरूप प्रदान करना छन्द का कार्य है । छन्द, अभिप्रेत रस का अनुगामी होता है । इसलिये रसानुकूल वृत्त (छन्द) का प्रयोग आवश्यक माना गया है । इसका समर्थन आचार्य क्षेमेन्द्र भी करते हैं । ___अनुचित वृत्त का प्रयोग शोभादायक नहीं होता । जिस प्रकार किसी ललना के मध्यभाग में पहनी जाने वाली मेखला कण्ठ में धारण की जाय तो उपहासास्पद ही होती है । यथा
"वृत्त रत्नावली कामादस्थाने विनिवेशिता । कथयत्यशतिमेवमेखलेव गलेकृता
॥15 इसलिए छन्दों का उपयोग रस एवं भाव के अनुरूप ही कवि जन करते हैं ।