________________
सप्तम अध्याय / 179 इसी प्रकार आगे के श्लोकों में भी चित्ताकर्षक वर्णन किया गया है, जिसका उदाहरण क्रमशः अवलोकनीय है -
"प्रौदि गतस्य परिजन पुष्टयै शश्वत्कर्ममितम् । एकै क या कपर्दिक या खलु वित्तं बहु निचितम् ॥हे मन.॥ स्मृतमपि किं जिननाम कदाचिद्वार्द्धक्येऽपि गतम् । विकलतया हे शान्ते सम्प्रति संस्मर निजनिचितम् ॥हेमन.॥ रट झटति मनो जिननाम् गतमायुर्नु दुर्गुणग्राम । स्थायी ॥ आशापाशविलासतो. द्रुतमधिकर्तुं धनधाम । निद्रापि क्षुद्रा भवद्भुवि नक्तं दिवमविराम ॥ गतमायु.॥ पुत्रमित्रपरिकरकृते बहु परिणमतोऽतिललाम । रामानामारामरसतो हसतो वाश्रितकाम ॥गतमायु.॥ परहरणे भरणे स्वयं पुनरनुभवता दुर्नाम । अयशः परिहरणाय दत्तं त्वया तु नैक विदाम ॥गतमायु.॥ बहु वलितं गलितं वयो रे सम्प्रति पलितं नाम । . अलमालस्येनास्तु शठः ते स्वीकुरु शान्तिसुधाम ।गतमायु.॥ माया महतीयं मोहिनी जनतायां भो माया ॥ स्थायी ॥ भूरामाधामादिधरायोमिह सातङ्कजरायां । यतते परमर्मच्छिदिरायां करपत्रप्रसरायामिह जनताया भो माया ॥ विषयरसाय दशा सकषाया शोच्या खलु विवशा या । गजवत्कपट कृताभ्र मुकायां प्रभवति बहुलापा या ॥ इह.॥ मित्रकलत्रपुत्रविसरायां परिकरपरम्परायाम् । जरद्गवः कर्दमितधारायामिव सीदति विधुरायाम् ॥ इह.॥ रता द्विरक्ताप्युनुरतिमायात्येषा जगतश्छाया । ततो विरज्य पुमानमुकायां किमिव न शान्तिमथायात् ॥ इह.॥'78
आगे भी 'हे नर निजशुद्धि मेव विद्धि सिद्धि हेतुम्' यह स्थायी टेक देकर पुनः उसी वस्तु को पुष्ट किया गया है, जो सर्ग की समाप्ति तक दिखाया गया है । इस कथन से शरीर, मन, इन्द्रियाँ ये नश्वर ही हैं । आत्म चिन्तन ही यथार्थ तत्त्व है । उसी का चिन्तन करना चाहिए और वह आत्म चिन्तन मन की बुद्धि पर निर्भर है । इसलिये मन को पवित्र करना अपेक्षित है । यह अन्त:करण की पवित्रता रूप, रस, गन्ध स्पर्शादि विषयों से दूर होने पर ही निर्भर है।